पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सदृश है। पुराने विषयों को भी नवीनता से सुसज्जित पार सकता है। और फिर, नया क्या है ? फूल, कोर्किल, पपीहा, शारर्दया पूर्णिमा, रिम-झिम मेहा, लूक-लपट, ऑसू, हिचकी, चुम्बन, परिरम्भा, सध्या, ऊषा, निशीथ, मिलन, मधुमय यामिनी, अधकार, प्रश, सभी कुछ तो पुराने-धुराने है ? मनोराग भी पुराने है और उनकी अभिव्यक्ति के साधन-ये शब्द--भी बहुत पुराने हो गए है। फिर भी नित्य प्रति कुछ न कुछ लिखा-पढ़ा जाता है और मानव समाज उस अभिव्यक्ति में नयापन अनुभव करता है । वस्तुत अभिनवता, नवीनता, मौलिकता बहुत अंशों मे कलाकार की अनुभूति पर अवलम्बित है। अत काव्य के लिये ऐतिहासिक-पौराणिक विषय, केवल मात्र चर्वित-चर्वण के तर्क के आधार पर, त्याज्य या वयं नहीं हो सकते। हॉ, प्रश्न यह अवश्य उठाया जा सकता है--और उठाया गया है- कि क्या आज का युग प्रबन्ध काव्यों के लिये उपयुक्त है ? यह प्रश्न वास्तव मे विचारणीय है। वर्तमान काल में प्रबन्ध काव्यो की रचना के लिये जो बाते बाधा-स्वरूप समझी जा सत . है वे है--(१) भाषा के गद्य स्वरूप का और छापेखाने का परिपूर्ण विकास (२) साहित्य में उपन्यास शैली का आविर्भाव, (३) पद्यात्मक शैली की अपेक्षा गद्यात्मक शैली की अभिव्यक्ति-सरलता एवं अर्थ-ग्रहण-सुकरता, (४) गद्य की अपेक्षाकृत बन्धन-मुक्तता-अर्थात् अनुप्रास, यमक, यति, गति, मात्रा आदि के बन्धन का गद्य मे तिरोधान, (५) वर्तमान जीवन की द्रतगतिमत्ता, अत उसमें समय के अभाव की स्थिति, (६) विज्ञान-प्रभाव के कारण मानव की रोमांचवादी वृत्ति का लोप, (७) पुरातन कालीन दैवी तत्वों को काव्य में प्रविष्ट करने की वृत्ति का वर्तमान विचार के साथ असा- मञ्जस्य, (८) वर्तमान जीवन की सकुलता (complexity), अतः उस जीवन मे ऋजुता और सहज विश्वास का अभाव, () सत्-भाव, सत्- विचार, सत्-श्राचरण के प्रति-अर्थात् जीवन के शाश्वत मूल्यों के प्रति अनास्था, अश्रद्धा और उपेक्षा, और (१०) पुरातन कालीन अनन्त, असीम, विशाल, विराट्, अपरिमितता (Vastness) का वर्तमान विज्ञान द्वारा लध्वीकरण | इन कारणो को उपस्थित किया जा सकता है, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिये कि वर्तमान काल प्रबन्ध काव्यो या विरीट् काव्यो (Epies) के लिये उपयुक्त काल नहीं है।