पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/८४

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? २३० तद्वत् कालिदास की गतिमय तीव्र कल्पना-धारा- परशुराम के प्रखर परशु का तेज दिखाती सारा, अब तू फिर क्या जाएगी उस अति चित्रित उपवन मे? क्या तू स्वाद, अरी, पाएगी इस चर्वित चर्वण में ? २३१ पूजनीय श्री तुलसी ने भी निज अन्तर्दशन से-- मनोहारिणी छटा दिखाई है भावाकर्षण से-- वह बगिया की सैन-बैन, वह गौरी का मृदु पूजन,- तुच्छ, सुना क्या तू सकती है वैसा कोई कूजन २३२ इसीलिए तू कर प्रणाम उन प्यारे मृदु चरणो मे- किकिणि-रव के क्वणित,प्रवाहित,नादित कल झरणो में। जीवन की कालिमा मेट तू लगा चरण-रज-चन्दन, श्रा, ऊम्मिला कुमारी के पद-पद्मो मे कर वन्दन । २३३ पट-परिवर्तन होते ही वह लक्ष्मण-रानी होगी, अपनो को ऊम्मिला तजेगी और बिरानी होगी , श्वशुरालय मे देवि सुमित्रा उस पर बलि जाएंगी, वह माता कौशल्या का मृदु लाड प्यार पाएगी । २३४ कुछ वर्षों मे गाढ प्रणय का हार ग्रथित होवेगा, अचल प्रेम मन्दिर से हिय का सिन्धु मथित होवेगा। मान-मनौवल की अनेक शत प्रिय लहरे लहराकर,- लाएगी स्मितियुत सम्भाषण के शत-शत रत्नाकर ।