पृष्ठ:ऊर्म्मिला.pdf/८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४० इन-विस्मित विस्फारित आँखो की छवि को तू हिय मे,- हलके-हलके धर ले, चित्रित कर ले, छोटे जिय मे। यह निश्चिन्त भाव, च चलता यह, यह उच्छृ खलता,- बन जायेगी-चिन्ता गहरी गम्भीरता, विकलना । इति श्री प्रथम सर्ग श्री लक्ष्मणार्पणमस्तु