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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१०४

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(८७)

भस्म करदो चलझे शोणितपुर को अब एक आनमे ।
फ़र्क मत प्रामेदो बादववंश के अभिमान में ॥
मेरी छाती उस समय ही शांति पूरी पायगी ।
जबकि शोणितपुर में शोणित की नदी बहलायगी ।।

श्रीकृष्ण--भैया बलदाऊ, शान्त । शोणितपुर में शोणित की नदी बहाना ठीक नहीं। इस कार्य से वहाँ की प्रजा दुख्न पायगी । हमें राजा से लड़ना है न कि प्रजा से। इसलिए ऐसे समय में शान्तिपूर्वक विचार करना चाहिये ।

बलराम--मदनमोहन, यह तुमक्या कहते हो । युद्ध में शांति ?

श्रीकृष्ण--भैया, शांति सब जगह काम देती है। बड़े से बड़ा योद्धा भी यदि युद्ध में शान्ति खो बैठेगा तो अपनी जीतसे हाथ धोबैठेगा ! देखो, सृष्टि ही को देखो। शिवमी शान्तिपूर्वक अपना काम करसी है । नित्य बोजसे वृक्ष और वक्ष से बीज बनाती है और किसी को कानो कान भी इस रहस्य की खबर नहीं होने पाती है।

बलगम--तो क्या तुम्हारी यह राय है कि हम शान्तिपूर्वक घर में जाकर बैठजायें ?

श्रीकृष्ण--नहीं, अनिरुद्ध को छुड़ाने अवश्य जाइये, परन्तु शान्ति के साथ !......देखो "महादेवजी अपने संहार कार्य का कितनी शान्ति के साथ करते हैं ? सबसे ज्यादा शान्ति अगर हम कहीं देखते हैं तो शमशान ही में देखते हैं:--

धनवान् के घर शांति का मिलता पता नहीं ।
अभिमान जहाँ पर है घों खुख जरा नहीं ।।