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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१०५

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मिलती है कहीं पर तो रागों में शांती ।
महलों में नहीं, पर्ण-कुटीरों में शांती ।।

बनराम--सुनलिया, आपकी शांति का व्याख्यान । युद्ध करने में तो आप भी सहमत हैं, फिर देर किस बात की है ? सब योद्धाओं को प्रस्थान करने की आज्ञा दी जावे ।

उग्र०--उद्धवजी, आप और बलराम अपनी संरक्षता में यादव सेना को ले जाइये, और दुष्ट वाणासुर का मद चूर्ण करके अनिरुद्ध को कुशल और विभय सहित द्वारिका लाइमे !

नारद--कुशल और विजय सहित ही नहीं श्री सहित भी !

सुद०--अर्थात् ?

नारद--गृहलक्ष्मी सहित भी !

सुद--हाँ, जब गृहलक्ष्मी आयेगी तभी तो नारदकला को विजय समझो जायगी।

बलराम--प्रद्युम्न को भी साथ ले जाइए ?

उग्र--नहीं, वह द्वारिका हो रहे। तुम और उद्धव ही काफी हो ।

श्रीकरण--उद्धवजी, देखिए, मेरे बताए हुए नियमों के अनु- मार लडिएगा। हमारा द्वेष राजा से है प्रमाले नहीं। प्रका को कोई दुःख न दिया जावे। जो योद्धा सामने युद्ध करने आवे, उसीपर वार किया जावे । खेत पर काम करनेवाले किसानो की खेती ऊजड़ न की जावे । झोपड़ों में रहनवाले गरीबों को न सताया जावे। किलों को तोड़न का पूरा प्रयत्न कियाजावे, परन्तु शिव मदिरों, पाठशालाओं और पुस्तकालयों को कोई हाथ न लगावे।

उद्धव०--ऐसा ही होगा।