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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/१२७

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जी ने बहुत से लोटो में उस्को पर्यटन कराके विष्णुजी के लोटे में वह नार सौपदी । जोइसो वही लोटेवाली नार अक्तक श्रीविष्णु भगवान् के पास है।

गङ्गा०--और वह लोटा विष्णु भगवान ने गुरुजी महाराज के भडार में लौट दिया है।

महन--मानता नहीं मूर्ख, सत्संग में विघ्न डाले ही जाता है। हाँ,तो उस नार का क्या ही सुन्दर मुख था, जोहैसो वर्णन में नहीं प्राप्तकता।महा, नाक मुश्रा जैसी, गाल पुथा जैसे, आँख लङ्गमा जैसी और ... (गद्गद् होजात है)

[इतने म राधारानी का वहां आमा और महंत का उसे देखना]

राधा०--[स्वगत]मैंने सुना है कि यहाँ एक महंत अच्छा सत्संग करते हैं, सो मैं भी उसे सुनने की इच्छा से यहाँ भागई । परन्तु कहीं यह कोरा वकवादी तो नहीं है ? (खडी रह जाती है।

महंत--[गङ्गादास को इशार स टुलाकर धीरस] बच्चा, देख तो यह कोई नई नवेली, चटक चमेली कौन है ? क्या तू इसके विषय में कुछ जानता है ?

गङ्गा०--हाँ, गुरुजी जानता तो जुरूर हूं।

महंत--क्या जानता है बच्चा ?

गङ्गा०--यही कि मैं इसे जानता तक नहीं।

महंत--(राधा से) भाभी माई, तुम भी सत्संग सुनो।

सुखदेई--(राधा से) आइये, कर्मवीर श्रीकृष्णदासजी की धर्म- पत्नी श्रीराधारानीजी आइए !

महंत--हाँ तो, स्त्रियों को पति की सेवा ही करनी चाहिए । क्योंकि पति ही स्त्रियों का सब कुछ है, परन्तु इसके साथ साथ