महन्तः--अरे निकालो, निकालो, यह कौन विधर्मी यहाँ घुस आया है इसे अभी यहाँ से निकालो।
शैवः--रे नादान,क्यों नाहक जुबान चलाता है ! तू मुझे क्या कोई ऐसा वैसा समझता है जो इस तरह धमकाता है ?
महंतः--तो बता,तू कैसे हमें अनाड़ी बताता है । इसका प्रमाण दे नही तो अभी तुझे शास्त्रार्थ करना होगा !
गंगा--और यदि शास्त्रार्थ न किया वो मुझसे शस्त्रार्थ करना होगा।
शैव:--अरे, क्यों व्यर्थ बकवाद किये जाता है।
महंतः--अरे गङ्गादास, देखता क्या है ? मार डंडा और करदे दुष्ट को ठंडा।
(गङ्गादास का शव को मारने दौड़ना, इतने ही मे कृष्णदासका वहां आजाना)
कृष्णदासः--ठहरो,भाइयो ठहरो। सत्सङ्ग में तुम लोग कैसा श्सभङ्ग कर रहे हो !
गङ्गा:--यह दुष्ट यहाँ आकर गुरू जी महाराज को अपशब्द सुनाता है, और उन्हें मूर्ख अनाड़ी बताता है। हमारे सीधी तरह समझाने पर भी यहाँ से नहीं जाता है।
शैवः--नहीं, मैं यहां से कभी नहीं जाऊंगा, और अभी सब लोगोंके सामने तुम्हारे वैष्णव संप्रदायकी पोल खोलकर दिखाऊंगा। महंतः हैं ! फिर वही बात मुंह से निकाली !
कृष्णः--शाँत, शाँत, शांत हो जाओ, व्यर्थ के लिए इन साम्प्रदायिक झगड़ों में पड़कर बैर न बढ़ाओ।