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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/२३

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( ४ )

है। मानसरोवर का शीतल जल मानरहित होकर खौल रहा है, कैलास ही नहीं सारा संसार डोल रहा है।

पार्वती--कैलासपते! मुझे तो इस वाणासुर पर बड़ी दया आती है, इसकी घोर तपस्या अब नहीं देखी जाती है। चलिये और इसकी मनोकामना पूर्ण कीजिये, इच्छानुसार वरदान दीजिये।

शिव--प्रिये, अभी तपस्या तो पूर्ण होने दीजिये । यह एक नहीं दो दो वरदान की इच्छा रखता है।

पार्वती--[आश्चर्य से] हैं ! दो वरदान ? दो वरदान कौन से ?

शिव--संतान और अजेयशक्ति का दान । परन्तु इसके लिये ये दोनों ही बातें कठिन हैं।

पार्वती--क्यों ?

शिव--इसलिए कि संतान का योग तो इसके भाग्य में ही नहीं है, और असुरोंको अजेयता का वर देना देवताओं की शक्ति को क्षीण करदेना है।

पार्वती-यदि वरदान कठिन न होते तो ऐसी उम्र तपस्या ही क्यों करनी पड़ती ?

शिव--इस उम्र तपस्या ही के कारण तो मैं इसे वर देने को तैयार हूं। परन्तु एक ही-अजेयशक्ति ही का-वर दे सकूगा। दूसरा देने को लाचार हूं।

पार्वती--क्यों ?

शिव--इसलिये कि संतान का वरदेना मुझे शोभा नहीं देता। यह तो ब्रह्मा के लिए ही ज्यादा उपयुक्त है।