पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/३०

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वाणासुर--हाँ, तेरे बदन पर !

विष्णुदास--नहीं, अन्यायी शासन पर !

वाणासुर--इसमें गरमी है।

विष्णुदास--लेकिन निर्दोष का लहू इसे ठंडी करदेगा।

वाणासुर-मेरा क्रोध फिर गरमी भरेगा ।

विष्णुदास--तो गरीबों की आह भस्म भी करदेगी:-

सताना बेगुनाहों का कहीं बरबाद होता है ।
सताताहै किसीको जो वह खुदही आप रोता है।।
सदा खाता है मीठेफल जो मीठे श्राम बोता है ।
जो कीकर को लगाता है, वही कांटोमें सोता है ॥

वाणासुर--यह आन बान ?

विष्णुदास--धर्म के कारण !

वाणासुर--ऐसा कठोर उत्तर ?

विष्णुदास--विष्णु भगवान के बल पर !

वाणासुर--देखना है तेरे विष्णु मगवान को !

विष्णुदास--[उपेक्षा से हंसकर] अरे तू ! तू विष्णुभगवान को क्या देखेगा । विष्णुभगवान को वह देखते हैं जिनके पास ज्ञान के नेत्र, प्रेम का हृदय, विद्या की रोशनी और धर्म की धारणा होती है :-

देह जाये, शीश जाये, प्राण जाये राम नहीं ।
धमकियों से इष्ट अपना, छोड़दे वह हम नहीं ।।
एक क्या सब पन्थ का, सिर धर्म पर तैयार है।
बच्चा २ वैष्णवों का, विष्णु पर बलिहार है।