पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१२)

वाणासुर--तो क्या तुझे यह नहीं मालूम कि मैं शिव का सर्वोपरि भक्त हूं?

विष्णुदास--मालूम है, मालूम है, कि तूने शिव की घोर, तपस्या करके अजेय वर प्राप्त किया है, परन्तु--

व्यर्थ है वरदान जब अभिमान तनमे आगया ।
फिर कहाँ है तेज जब अज्ञान तनमें आगया ॥
रूप बनजायेगा वह वरदान ही अब शापका ।
फूटनेवाला है ओ पापी तेरा घट पाप का ॥

वाणासुर--देख मैं एक बार फिर कहता हूं कि शिव भक्त का आसन न हिला । नहीं तो, तू क्या सारे संसार के वैष्णवों को इस का फल भोगना होगा।

विष्णुदास--अबतक तूने कौनसी कसर छोड़ी है जो आगे के लिये ऐसी धमकी दे रहा है। तिलक हमारा तूने नष्ट किया, लाज, पत, सब तूने हमारी लेली। और अब हमारी गंध तक भी तुझे नहीं भाती ? अरे-

नष्ट जब होता है दाना, खेत है उगता तभी ।
काटते हैं जबकि केला, फूलता फलता तभी ।
त्योंही वैष्णव संगठन, दवकर नया रङ्ग लायगा।
यह वह झंडा है, जो सारे देश में फहरायगा ।।

वाणासुर-मौन होजा!

विष्णुदास-कभी नहीं !

वाणासुर-(खड्ग निकाल कर) यह खड्ग देख !

विष्णुदास-टूट जायगी।