पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/३४

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एक वैष्णव--जाति की सेवा के वास्ते जाति का बच्चा २ एक हो जाय।

दूसरा वैष्णव--एक वैष्णव की हानि सारे सम्प्रदाय की हानि समझी जाय।

तीसरा वैष्णव--एक की पुकार पर एक हजार सहायकों का झुंड सहायता को आजाय ।

चौथा वैष्णव--कोई अगर दुष्टता की दृष्टिसे वैष्णवों की ओर एक अंगुली भी उठाय तो उसका सारा हाथ मरोड़ दिया जाय ।

कृष्णदास--हाँ, यही तो संगठन है । इसी संगठन को मैं आज चाहता हूँ। मेरी मंशा यह नहीं है कि तुम दूसरों पर प्रहार करो, दूसरों को मारने के लिये उठ खड़े हो, बल्कि दूसरे तुमको गाजर मूली की तरह तोड़ न सकें, ऐसी शक्ति उत्पन्न करो। दूसरों को बतादो कि हम भी शरीरवाले हैं । हमारे शरीर मे भी मनुष्यता का रूधिर है।और हमारे उस रुधिर मे भी गरमी है:--

खिलौने खांड के होकर, नहीं जग में बने हैं हम । चबाना जिनका मुश्किल है, वह लोहे के चने हैं हम ।।

एक वैष्णव--परन्तु.........

कृष्णदास--हॉ,हाँ,कहो।।

एक वैष्णव--एक बात है। शैव सम्प्रदाय के मुकाबले में वैष्णव--संगठन खड़ा करना मनुष्य जाति का उदार उद्देश्य नहीं है। इससे मनुष्य जाति मात्र की एकता में वाधा पड़ती है।

कृष्णदास--ठीक है । परन्तु दलबन्दी तो जगत्कर्ता ही ने आदि काल से रक्खी है । नहीं तो चौरासी लाख योनियोंके बनाने की क्या जुरूरत थी ? एक ही मनुष्य योनि निर्माण की जाती !