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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/५७

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दृश्य सातवां

(ऊषा का शयनागार)

[ ऊषा वीणा बजाकर गाती है ]

गाना

ऊषा-

प्रेम ही है सब जगमें सार ।
बिना नदी के जैसे पर्वत बिनु फल जैसे डार।
त्योंही प्रेम विना प्राणी का जीवन है निःसार ॥

[भाषण] प्रहा, कैसा मनोहर दृश्य है। समस्त संसार शोभायमान दीख रहा है । जान पड़ता है कि सारे संसार में वसंत ऋतु की शोभा छाई हुई है। पुष्प फूल रहे हैं, भौरे गूजरहे हैं। और मन्द मन्द वायु शरीर में नवजीवन संचार कर रहा है। यह सब क्या है ? प्रेम देवताका ही तो खेल है:-

गाना

लता लता से, चन्द्रकला से बरसे झम फुहार ।
सकल सृष्टि कररही है मानो,आज प्रेम भंगार ॥

[भाषण] अहा,नदियाँ उमड़ उमड़ कर अपने प्रियतम समुद्र से मिलने जारही हैं। हरे भरे मैदान और खेत इन नदियों के बढ़ते हुए जल को लेने के लिये अपनी गोद फैलाये हुए हैं। पौधे बढ़गये हैं, और फल आने में थोड़ा ही समय शेष है । वेदान्तियों का यह कथन कि संसार प्रसार है सर्वथा भ्रांतिपूर्ण और निंंम्रूल