पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/६२

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चित्रलेखा--सखी, धीर धरो, इतनी न अकुलाओ। मेरा विश्वास है कि यह स्वप्न सच्चा होगा, और अवश्य सच्चा होगा। हमारे यहाँ प्राचीन समय से स्वप्न मे बीती हुई बातों का अर्थ बतलाने का एक शास्त्र चला आया है। उस समय की बहुतेरी स्त्रीयां तो इस शास्त्र में बड़ी प्रवीण होती थीं। परन्तु आज भी वह शास्त्र लुप्त नही हुआ है। यह दूसरी बात है कि आज उसके जाननेवालो की संख्या कम है।

ऊषा--तू उस शास्त्र को जानती है?

चित्र०-हाँ, जानती हूं।

ऊषा--तो मेरे स्वप्न का चित्र खींचकर बतला। मैं भी वो देखूं कि तेरा शास्त्र कैसा है!

चित्र०-ऐसे थोड़े ही बताऊंगी,पहले थोड़ी मिठाई तो मंगाओ!

ऊषा--सखी, मेरा चित्त अत्यन्त व्यग्र हो रहा है। देर मतकर।

चित्र०-अच्छा देखो, [काले तख्ते पर इन्द्र का चित्र बनाकर] क्या तुम्हारा मनोवांछित वर यही है?

ऊषा--नहीं, नहीं,

चित्र०-[कामदेव का चित्र बनाकर] अच्छा तो यह है?

ऊषा--बहन, तुम तो हंसी कर रही हो। दुःखमें सहानुभूति दिखलाने के बजाय दिल्लगी कर रही हो। वह मूर्ति इससे कहीं अधिक सुन्दर, शोभायमान, लावण्यमयी और उज्ववल थी।

चित्र०-अच्छा, और देखो।[कृष्ण का चित्र बनाकर दिखाती है]

ऊषा--न जाने क्यों मेरा मुख इस चित्र के सामने नहीं ठहरता है! नाक और भौं तो कुछ इससे मिलती झुलती थी।

चित्र०-अच्छा, और सही[प्रद्युम्न का चित्र बनाकर] इसे देखो।'