पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/६५

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चित्र--ले सखी, मैं तेरी खालिर योगिनी बनकर चली। पंखसे--मन्त्रों के अपने पक्षिनी बनकर चली।

उषा--पक्षिनी बनकर नहीं, एक सिद्धिनी बनकर चली। उस सजीवन को, पवन की नन्दिनी बनकर चली ।।

[चित्रलेखा का योगशक्ति द्वारा आकाश गमन । सब का आश्रय म देखना । उधर सीनका बदलना और द्वारिकापुरी का दृश्य दिखाई देना । अनिरुद्ध सोरहा है और चित्रलेखा उसकी ओर को जारही है।

ड्रापसीन.