पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/६७

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चित्रलेखा, तू द्वारिकापुरी तो पहुंचगई, परन्तु तेरा कार्य किस प्रकार सिद्ध होगा? राजकुमार अनिरुद्ध को उड़ाकर लेजाना साधारण कार्य नहीं है। क्योंकि इस नगरी का रक्षक स्वयं भगवान् द्वारिकानाथ का चक्र सुदर्शन है।

[नारदजी का धाना]
 

नारद--यायुष्मती ! कहो चित्रलेखा, अच्छी तो हो ! राज- कुमारी ऊषा यो राजेन्द्र वाणासुर अच्छी तरह हैं ? इधर कैसे माना हुआ ?

चित्र०--सब अच्छे है महाराज । जब आप जैसे महान पुरुषो की कृपा है तो फिर क्लेश कहां ? श्रानन्द ही अानन्द है। दवर्षिजी, राजकुमार अनिरुद्ध को सखी ऊषा ने जब स्वप्न मे देखा है, तभी से वह उन्हें वर चुकी है। उसकी दृढ़ हठ है कि मैं विवाह यदि करूंगी तो अनिरुद्ध जी से करूँगी, नहीं तो जीवन भर अविवाहित रहकर तपस्या करूंगी।

नारद--(स्वगत) धन्य, आर्यवाले ! (प्रन्ट ) अविवाहित रहकर तपस्या करना तो अच्छा है, यह तो बड़ा ऊंचा दर्जा है।

चित्र०--वाह,ऋषिजी! आप तो सारी दुनिया को ऋषि बनाना चाहते हैं।

नारद--तो क्या ऋषि बनना कोई बुरा काम है ?

चित्र०--हाँ, कुमार अवस्था में बुरा है । ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम, उसके बाद वाणप्रस्थाश्रम तब कहीं सन्यास, पने तो पहले हो रखदिया पांच के ऊपर पचास ।

नारद--पर तुम तो हो हमसे भी क्यादा चालाक, चारो वेद और छहों शास्त्रों में ताक !