पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/६९

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(५२)

गाना

छोड़कर मन के सब छलछन्द, भजो गोविंद, भजो गोविंद ।
विछा है माया का जो फंद, फँसे हैं इसमें प्राणी वृन्द,
पृथक रहने में है आनन्द, भजो गोविंद, भजो गोविंद ॥१॥
रटेगी जिह्वा अभी मुकुंद, ध्यान में आयेगा नंदनंद ।
तभी पाओगे परमानन्द, भजो गोविंद, भजो गोविंद ॥२॥

[गाते गाते चले जाना]
 

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दृश्य दूसरा

[अनिरुद्धका बयनागार, अनिरुद्ध सोरहा है, सुदर्शनचक्र पहरा दे रहा है चित्रलेखा प्रवेश करती है ]

चित्र०-[ स्वागत ] यही है, राजकुमार भनिरुद्ध का महल यही है। सखी ऊषा का भाग्य विधाता इसी महल में शयन कर रहा है। जाऊँ और जाकर उसे जगा दूं । परन्तु नहीं, जगाने के बाद उसे लेजाना बड़ा कठिन है। तब १ तब ? इसी तरह सोते हुए को पलंग सहित उड़ा लेजाना ही तो मेरे कार्य का क्रम है, और इसी के सिद्ध होने पर तो मेरा सुफल परिश्रम है । परन्तु वहाँ तक पहुंचने में भी तो बड़ी चिन्ता है, मैं प्रत्यक्ष देख रही हूं कि वहां सुदर्शन चक्र का पहरा हैं । फिर ? नारद जी की बताई हुई युक्ति ही ठीक है। भारमशक्ति, काम कर । चित्रलेखा, तू अनिरुद्ध की माता रुक्मावती का रूप धर ! [ रुक्मावती का रूप बनाती है ] बस अब ठीक होगई, काम शुरू करना चाहिये ।:-