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पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/७०

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यह चालाकी, यह ऐय्यारी सब प्राण सखी के कारन है। जिनमें ऊषा का जीवन है उसमें ही अपना जीवन है ।। (प्रकट) सुदर्शन !

सुदर्शन--(मनुष्यरूप में प्रकट होकर) कौन ? इस आधी रात के भयंकर समय में मुझे कौन पुकारता है ?

चित्र०--जिसको पुकारने का अधिकार है।

सुदर्शन--(देखकर ) हयँ, कौन ? छोटी माता जी ? प्रणाम !

चित्र०--चिरंजीवी हो । सुदर्शन, तुम मेरा कितना भादर करते हो ?

सुदर्शन--माता जी, आज आप यह कैसा प्रश्न कर रही हैं ? पुत्र माता का जितना आदर करता है, शिष्य गुरुपत्नी का जितना भादर करता है, यह सेवक उतना ही भादर अपनी स्वामिनी का करता है ।

चित्र--धन्य, सदाचारी सेवक ! अच्छा यदि मैं तुम से इस समय यहाँ से हट जाने के लिये कहू तो तुम हट सकते हो ?

सुदर्शन--परन्तु ऐसा भाप क्यों कहेंगी ?

चित्र०--अपनी प्यारी के लाभ के लिये ।

सुदर्शन--हयँ । अपनी प्यारी के लाभ के लिये ? यह आप क्या कह रही हैं ?

चित्र०--(स्वगत) भूली, चित्रलेखा तू भूली । शीघ्रता में तू यह क्या पक गई । सचमुच सुदर्शन के तेज के आगे तू अपना अभिमान भूल चली। तू तो इस समय रुक्मावती है ! देवर्षि नारद की शक्ति, तू मेरी सहायता कर । जिससे कि कार्य सुफल हो। (प्रकर) मैं ठीक कह रही हूं सुदर्शन । अपनी प्यारी वस्तु के लाभ के लिए!