पृष्ठ:ऊषा-अनिरुद्ध.djvu/७९

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गङ्गा०--दूर रहिये, दूर रहिये । वैष्णव धर्म के मुकुट-मणि, इस भ्रष्ट बालक से दूर रहिये । इसकी गन्ध तुन्हें कहीं अपवित्र न करदे । यह शवों द्वारा बलात्कार से शैव होगया है।

कृष्ण०--(स्वगत) सुन रहा है कृष्णदास, तू इस बालक की करुणामरी पुकार सुनरहा है । हाय,पृथ्वी तू फट क्यों नहीं जाती, आकाश तू टूट क्यों नहीं पड़ता जो इस प्रकार शांति के पुजा- रियों पर अन्यान्य धर्मवालों को अत्याचार होरहा है।

सोगये हो क्षीरसागर में कहां भगवान तुम ।
अपने भक्तों पे नहीं देते प्रकट हो ध्यान तुम ॥
ये तुम्हारी धर्म नौका है ज्वारो धानकर ।
आन हो तो आनमें डूषों को तारो आनकर ।।

[गगाराम से ] उठो वीर बालक उठो, तुम अपवित्र नहीं हुए हो। कंठी टूट गई तो टूट जान्दो । उसके टूट जाने से तुम्हारा धर्म नष्ट नहीं हुआ है। तुम अब भी वैष्णव हो और शुद्ध वैष्णव हो।

कंठीमाला, छायसब, हैं जाहिरी दिखाव ।
सच्चा वैष्णव है वही, जिसमें सच्चा माव ॥

माधो०--तो महाराज कंठी टूट जाने से हर्जही क्या हुआ ? हम भभी तुलसी इसके मुंह में डालकर वैष्णव बनाए लेते हैं।

कृष्ण०--हां, यही विचार वैष्णव संगठन को पायेदार बनाने वाले हैं । जाइये महन्त जी महाराज, इस धर्म प्रेमी बालक को आप अपनी राम कथा सुनाइये, राम मंत्र ताइये और रामजी का सचा भक्तपनाइये।

[सब का अपना]