पृष्ठ:कंकाल.pdf/१२१

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घटी और विजय बाथम के बंगले पर लौटकर गोस्वामीजी के समय में वही देर तक बाज़द्दीप्त गरते रहे। विजय ने अन्त में फुहा--मुझे तो गोस्वामी को बातें कुछ चतो है । कल फिर चलूंगा तुम्हारी क्या सम्मति है घण्टी ? मैं भी चलँग । ये दोनों उजर सरला की कोरी की और ले गये 1 अञ होनों वही रद्द है 1 लतिका ने कुछ दिनों से बाथम में बौना छोड़ दिया है। बाम भी पाइ के साथ ही दिन बिताता है । आनन्न उराफी धार्मिक भावना प्रबल हो गई | मूमित चिन्ता-सी लढवा मन्त्र-चालिंद्र पाद-दिप करती हुई दालान में आकर बैठ गई । पलकों के पदै गिरे हैं। भावनाएँ अस्फुट होकर विलीन हो जाती हैं मैं हिन्दू थी,..हो फिर...संतृप्ता अर्थिक कारणों से पिता...माता...ईसाई... ममुना के पुल पर से रेलगाड़ी आती थी.,,झवा झवः भवः,,,आलोक-माला को हार पहने सध्या में...हाँ यमुना की आरती भी होती ...अरे में हुए...में उन्ई चने खिलाता थी...पर मुझे रेलगाड़ी का संगीत जैन घंटों में अच्छा लगता..। फिर एक दिन इम लोग गिरजाघर में भी पहुंचे। इसके बादं...गिरजाघर झा घंटा सुनने लगी...और मैं लता-सी यद्धने सग...बाथम एक सुन्दर हृदय की भानादाा-सा गुरुचिपूर्ण यौवन का उन्माद...प्रेरणा का प्रपन...मैं निपट गई..। फूर...निर्दम...मनुष्य के रूप में पिशाच...मेरे मन का पुजारी..,म्यापारी... जापानुस। वैराने वाला । और यह कौन ज्ञाला घण्टौ...बाथम अमहूनीय... ओष्ठ । कृतिका रोने लगीं। स्माल से उसने मुंह बँक लिया । अझ रोती रहीं। जब सुरक्षा में जाकर उसके सिर पर हाथ फेरा, तब वह चैतन्य - trपने से चौककर उठ बैठी । सैम्म । मन्द प्रकाश सागने था। उसने महा--सरला, मैं दुःस्वप्न दैब ही थी । ११२ : प्रसाद नाङ्मय