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का नाम देवनिरंजन हुआ। यह सचमुच आदर्श ब्रह्मचारी बना । वृद्ध गुरुदैव ने उसकी योग्यता देखकर उसे उन्नीस वर्ष की ही अवस्था में गद्दी का अधिकारी बनाया । वह अपने संघ का संचालन अच्छे ढंग से करने लगा।

हरद्वार में उस नवीन तपस्वी की सुख्याति पर बूढ़े-बूढे बाबा लोग ईर्षा करने लगे। और इधर निरंजन के मठ की भेंट-पूजा बड़ गई। परन्तु निरंजन सब चढ़े हुए धन का सदुपयोग करता था। उसके सदनुष्ठान का गौरव-चित्र साज उसकी आँखो के सामने खिंच गया और वह प्रशंसा और सुख्याति के लोभ दिखाकर मन को इन नई कल्पनाओं से हटाने लगा, परन्तु किशोरी के नाम ने इसे बारह वर्ष की प्रतिमा का स्मरण दिला दिया। उसने हरद्वार लाते हुए कहा था--किशोरी,तेरे लिए गुड़ियां ले आऊंगा। क्या यह वही किशोरी है ? अच्छा यदि है, तो इसे संसार मे खेलने के लिए गुड़िया मिल गई। उसका पति है, वह उसे बहलायेगा। मुझ तपस्वी को इससे क्या ! जीवन का बुल्ला विलीन हो जायगा। ऐसी कितनी ही किशीरियाँ अनन्त समुद्र में तिरोहित हो जायेगी।मैं क्यों चिन्ता करूं?

परन्तु प्रतिज्ञा ! ओह यह स्वप्न था, खिलवाड़ था। मैं कौन हूँ किसी को देनेवाला, वहीं अन्तर्यामी सबको देता है । मुर्ख निरंजन । सम्हल !! कहाँ मोह के थपेडे में झूमना चाहता है? परन्तु यदि वह कल फिर आई तो?--भागना होगा। भाग निरंजन, इस माया से हारने के पहले युद्ध होने का अवसर ही मत दे।

निरंजन धीरे-धीरे अपने शिविर वो बहुत दूर छोड़ता हुआ, स्टेशन की ओर विचरता हुआ चल पड़ा। भीड़ के कारण बहुत-सी गाडियाँ बिना समय भी आ-जा रही थी। निरंजन ने एक कुली से पूछा- यह गाड़ी कहाँ जायगी?

सहारनपुर-उसने कहा

देवनिरंजन गाड़ी में चुपचाप बैठ गया।

दूसरे दिन जब श्रीचन्द्र और किशोरी साधु-दर्शन के लिए फिर उसी स्थान पर पहुंचे, तब वहाँ अखाटे के साधुओं को बड़ा व्यग्र पाया। पता लगाने पर मालूम हुआ कि महात्माजी समाधि के लिए हरद्वार चले गये। यहाँ उनकी उपासना में कुछ विध्न होता था। वे बड़े त्यागी हैं। उन्हें गृहस्थथों की बहुत झंझट पसन्द नहीं। यहाँ धन और पुत्र मांगनेवालो तथा कष्ट से छुटकारा पानेवालों की प्रार्थना से वे ऊब गये थे।

किशोरी ने कुछ धीमें स्वर से अपने पति से कहा-मैं पहले ही कहती थी कि तुम कुछ न कर सकोगे। न तो स्वयं काहा और न मुझे प्रार्थना करने दी।

विरक्त होकर श्रीचन्द्र ने कहा- तो तुमको किसने रोका था। तुम्ही ने क्यों न सन्तान के लिए प्रार्थना की। कुछ मैंने बाधा तो दी न थी।

६:प्रसाद वाङ्मय