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उत्तेजित किशोरी ने कहा- अच्छा तो हरद्धार चलना होगा।

चलो, मैं तुम्हें वहां पहुंचा दूंगा। और, अमृतसर आज तार दे दूंगा कि मैं हरद्वार होता हुआ आता हूँ; क्योंकि मैं व्यवसाय इतने दिनों तक यों ही नही छोड़ सकता।

अच्छी बात है। परन्तु मैं हरद्वार अश्य जाऊंगी। सों तो मैं जानता हैं-कहकर श्रीचन्द्र ने मुँह भारी कर लिया; परन्तु किशोरी को अपनी ढेक रखनी थी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि उन महात्मा से मुझे अवस्य सन्तान मिलेगी।

उसी दिन श्रीचन्द्र ने हरदार के लिए प्रस्थान किया। और अखाड़े के भंडारी ने भी जमात लेकर हुरद्वार जाने का प्रबन्ध किया।

हरद्वार के समीप ही जाह्नवी के तट पर तपोवन का स्मरणीय दृष्य है। छोटे-छोटे कुटीरों न श्रेणी बहुत दूर तक चल गई है। खरस्रोता जाह्नवी की शीत धारा' उस' पावन' प्रदेश को अपने कल-नाद से गुंंजरित करती है। तपस्वी अपनी योग-चर्या-साधन के लिए उस' छोटे-छोटे कुटीरों में रहते हैं। बड़े-बड़े मठों से अन्नसत्र का प्रबन्ध है। वे अपनी भिक्षा ले आते हैं और इसी निभृत स्थान में बैठकर अपने पाप की प्राक्षालन करते हुए ब्रह्मानन्द का सचख भोगते हैं। सुन्दर जिला-खण्ट, रमणीय लता-वितान, विशाल वृक्षी की मधुर छाया, अनेक प्रकार के पक्षियों का कोमल कलरव यहाँ एक अद्भुत शान्ति का सुजन करता है। आरण्यक-पाठ के उपयुक्त स्था है।

गंगा की धारा जहाँ घूम गई है वह छोटा-सा कोना अपने सब साथियों को छोड़कर आगे निकल गया है। यह एक सुन्दर कुटी हैं, जो नीची पहाडी की पीठ पर जैसे आसन जमाये बैठी है। उसी की दालान में निरंजन गंगा ही धारा की ओर मुँह किये ध्यान में निमग्न है। यहां रहते हुए कई दिन बीत गये। आसन और दृढ़ धारणा से अपने मन को संयम में ले अने का प्रयत्न लगातार करते हुए भी शान्ति नही लौटी। विक्षेप बराबर होता था। जब ध्यान करने का समय होता, एक बालिका की मूर्ति सामने आ खड़ी होती। यह उसे माया आवरण' कहकर तिरस्कार करता; परन्तु वह छाया जैसे ठोस हो जाती। अरुणीदयं की रक्त किरणें आँखो में घुसने लगती थी। घबराकर तपस्वी ने ध्यान छोड़ दिया।देखा कि पगडण्डी में एक रमणी से कुटीर के पास आ रही है। तपस्वी को क्रोध आया। उसने समझा कि देवताओं को तप में प्रत्यूह' डालने का क्यों