पृष्ठ:कंकाल.pdf/१३०

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किशोरी और निरंजन काशी लौट आये; परन्तु उन दोनों पैः हृदय गे शान्ति न थी । क्रोध से किशोर ने विजय का तिरस्कार किया, फिर भी शहद मातृ- स्नेह निदोह मारने लगा। निरजन से दिन में एकाध बार इस विपर्य को लेकर दो-दो चोंच हो जाना अनिवार्य हो गया। निरंजन ने एक दिन हुनु होकर इसका निपटारा कर लेने का विचार कर लिया; यह अपना सामान बंधवाने सगा। किशोरी ने यह ढंग देखा। घडू जल-भुन गई। जिसवैः लिए उसने पुत्र को छोड़ | दिया, वह भी आज गाने को प्रस्तुत है ! उसने तीन स्वर में कहा-या अभी जाना चाहते हैं ? । हाँ, मैंने जय संसार छोड़ दिया है, तब किसी की बात स्पो सहूँ ? क्यों शुरु बोल हों, तुमने कच कोई वस्तु छोड़ी थी । तुम्हारे माग से तो, | भोले-भाले, माया मे पसे हुए छुस्य, कही ऊँचे हैं ! अपगी ओर देखो, इथप पर | हाय रखकर पूछो । निरंजन, मेरे सामने तुम यह कह सकते हो ? संसार मान तुमको और मुन्न क्या समझता है-कुE इसका भी समाचार जानते हो ? जानता है किशोरी ! माया के सथापण तिटके में एक सच्चे रघु के फेस जाने, ठग जाने का यह लज्जित प्रसंग अब किसी से छिपा नहीं-इसीलिए मैं जाना चाहती हैं । | तो रोवता कौन है, जागो ! परन्तु जिसके लिए मैंने राय कुछ खो किया है, उसे तुम्हीं ने मुशमै छीन लिया उसे देकर जाओ ! जाओ तपस्या करो, तुम फिर महात्मा बन जाओगे | सुना है, पुश्यों के तप घने से पीर-से-पोर को मो भगबानु हाम्रा करके उन्हें दर्शन देते हैं। पर में हैं स्त्री जाति | मेरा पच्च भाग्य नाही, मैंने माप करके वो पाय घटदोरा है, उसे ही मेरी गोद में पॉफते जाओ ! किशोरी का म बुटने लगा। वह अधीर होनर रोने लगी। निरंजन ने आज अपना न प देखा और वह इतना यीभता था कि उसने फेस : १२१