पृष्ठ:कंकाल.pdf/१३९

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नहीं-नहीं, यह बैंक ६-तारा ही है ? मैं इरो कितनी बार काम में किशोरी मैः पहाँ दैया है और मैं बह सकता हैं कि भङ्ग उसकी दासी यमुना है; तुम्हारी तारा' वृयापि नही ।। परन्तु आप इसको कैसे पहुचानते | तारा' मेरे घर उत्पन्न हुई, पत्नी और जही 1 कभी इसा और लापका सामना तो हुआ नहीं, अभिकी आशा भी ऐसी ही थी । ग्रहण में वह भूलकर लखनऊ गई। वहाँ हा एक स्वयं सेवक वसे हुरहर ले जा रहा था, मुझसे राह में बंद हुई, मैं रेल से व्रतर पड़ा। मैं इसे में पहु- नानूंगा। | तो तुम्हारा कहना ठीक हो सकता है। याहूर निरंजन' ने सिर नीचा कर लिया । मैंने इसका स्वा, मुख, अवयव पहचान लिया, यह रामा की कन्या है 1 न मुण्डिारी में भारी स्वर से कहा । निरंजन चुप था । वह विचार में पड़ गया । पोड़ी देर में बबीनै हुए उने सिर उठाया--दोनो को बचाना होगा, दोनों ही...है भगवान् ? इतने में गोस्वामी कृष्णशरपा का शब्द उसे सुनाई पड़ा-अप तोग चाहे जो समझे; पर मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता क़ि गुना हुया कर सकती है ! यह संराार में संताई हुई एक पवित्र आत्मा है, वह निर्दोष है ! आप लोग देखें कि उन फाँसी न होगा। मावेश से निरंजन उसकै पसि जाकर वता-मैं उरागी पैरवी का राम श्यप दूंगा। यह साजिए एयः हार में मौद है, घटने पर और भी देगा । अच्छे- ववल कर लिये जाये। उपस्थित लोगों ने एक अपरिचित की इस इदाता पर धन्यवाद दिया । गोस्वामी कुणशर कुँरा पडे । उन्होने कहा--मंगलदेय को बुलाना होगा, वहीं सन प्रबन्ध करेगा। निरन उसी में 'का अतिथि हो गया और उसी जगह रहने लगी । गोयाम शरण' की उसके हृदय पर प्रभाव पड़ा । नित्य सत्संग होने लगा, प्रतिदिन एक-दूसरे के अधिकाधिक समय होने लगे । | मौस) के नोचे शिलाखण्ड पर गोस्वामी शरण और देवनान वैठे हुए बात कर रहे थे । निरंजन ने कहा- महात्मन् 1 आज मैं तुरा हु, मैरी मिशारा नै अपगः अनन्य अभ्रम मोत्र निया। श्रीकृष्ण के इस कल्याण-मार्ग पर मेरा पूर्ण विश्वास हुआ। १३० : प्रभार माग