पृष्ठ:कंकाल.pdf/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

र भगन्द्र का भहन ने हेलमन अह गया था और भापी भी उसकी रसोई बनाने का काम करती थीं । मह हार से अयोध्या चली आई थी, अयोकि वहाँ इत्तफा मन न लगा। नापी ना रह रूप पाठक भुने न होंगे; जब यह रिवार में तारा के साथ रहती झी; परन्तु तब मैं अब अन्तर गा। मानब मनोवृत्तियाँ प्रायः अपने लिए एक केन्द्र बना लिया करती हैं, जिरा पारी और नई आशा और उत्साह से नाचती रहती हैं । चाची तारा के चरा पुत्र को --बिले यह अस्पताल में छोडगर ननी बाई थी—अपना र नक्षय रामङ्गो लगी थी। मोहन पालने के लिए घराने अधिकारियों से माँग लिया था। पगली और पानी गिभ पाट पर बैठी थी; वहाँ एक अन्धा भिखारी लठ्या तर हुआ, उन लोगों के समीप आयी । उगने कहा -भीय दो वाि ! इस जन्म में कितने अपराध निगे है है भगवा ! मी मौत भी नहीं आती। चाची नमः उठी । एक बार उसे जान से देखने लगी । सहना गर्गती ने कहा- अरे, तुम मथुरा में यहाँ । पहुँचे । तथ में घूमता है बँदो ! अराना प्रायश्चित करने के लिए, दूसरा जन्म इनाने के लिए ! इतनी है तो आशा है—भिखारी ने कहा। | पगन्ना उत्तेजित हो उठी 1 अभी उसके मस्तिष्क की दुर्बलती गई न घी । उसने समीप द्धार उने झकझोर गार पूछा-गोविन्दी चैत्राइन की गानी हुई थैटो को तुम भूल गये ! पति , मैं वे हैं। तुम बताओगे मेरी माँ को ? अरे घृणित नीच अन् ! भरी मात्रा से मृझै हुनैपाले हत्यारे ! तु कितना निप्र है ! | मा कर बेटी 1 गिा में भगवान ने शक्ति हैं, उनही अनुकम्पा हूँ। मैने अपराध किया था, इसी का हो न भीग रहा है ! यदि तु समुच वही गौयित्री वाइन की पाती हुई लड़की है, वो तु प्रसन्न हो जा-अपने अभिप की ज्याला " मुझे जलता हुआ देवकर प्ररान हो जा ! बेटी, हरदार शक तो तेरी भई का पता में, पर मैं बहुत दिन में नहीं जानता कि यई अब कहा है ! बन्यो कहाँ है ? घेह बताने में अब अन्या रागदेव असुगर्थ है मैटी ! Tी ने उठाए सहगा उस अन्धे को हाथ पकड़फर कहा–रामदेव ।। | रामदेव ने एक बार अपनी इन्धी आंखों से देखने को भरपूर भैप्टा की, कर यिफल होकर आना बहाते हुए बोला---गन्दों का-सा स्वर सुनाई पड़ता है ! दा, तुम्ही हो । योलो ! हुरद्वार से तुम यहां आ गई हो ? है राम ! अग्ने तुमने मैरा अपराध क्षमा किमा, नन्दो ! यही तुम्हारी सकी है ! मित्र को फूटी थांघों से आँसू बह रहे थे। कंबति: १६६