पृष्ठ:कंकाल.pdf/२१४

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कम्बल आहे, यमुना की ओर मुंह किये, बैठा है; जैसे किसी योगी की अचल रोमाधि सर्ग हो । | सरला नाहगे सर्ग है यमुना माता ! मंगल का परयाण करो और उसे जोति पर गाला को भी प्रापदान दो। पाता । आज की रात बड़ी मानक ३-हाई भगवान् चौ ! | मह वैठा हुआ कम्पलगाला विचलित हो उठा। उसने बडे गम्भीर स्वर से पूछा-बर्मा मंगलदेष कृण है ? प्राचिनी और व्याकुल सरला ने कहा- माग ! यह किसी का बया है, उसनेः स्नेह के घन हैं, उग्री को फत्मण-पमिना कर रही हैं। और तुम्हारा नाम सरला है ? तुम ईसाई के घर पहले रहती थी न ! –धारे स्वर में प्रश्न हुआ ! ही योगिराज । आप तो अमायी है। उस व्यक्ति ने टटोलकर कोई वस्तु निकालकर सरज्ञा की और फैनः दी। सरसा ने देखा, वह एक पत्र है। उसने नहा-बडी देया हुई महाराज ! तो इसे ले जाकर बध ग ग ! यह फिर, कुछ न नोखा, जैश रामावि वग गई हो । शरला ने अधिक छेड़ना उचित न अगा । मन-ही-मन नगस्कार करती हुई, प्रसन्नता से आश्रम की ओर नौट पद्दी । | यह अपनी कोठरी में भाकर, उस यंत्र को घाग में पिरोकर, मगन के प्रकोष्ठ के पास गई । उसने मुना, कोई कह रहा है- पहन गाना ! तुम थक गई होगी, नावों में बुछ समय सविता कर दें। उत्तर मिना नहीं यमुना बहिन ! मैं तो अभी गैठी हैं, फिर भावश्यकता होगी, तो बुराग ।। । एक स्त्री तोट्यार निकल गई । सरसा भीतर शुसी । उगने वह यंत्र मंगल के गले में बाँध दिया और मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की । वही बैठी रही। दोनों ने रात भर बडे यत्न से सेवा की । प्रभात होने लगा । बहे गुन्देह से रारती ने उस प्रभाव के बाहर ने देखा। दीप को पति मलिन हो चली । रोगी इरा समय निद्रित था । जब प्रकाश उस मोठरी में पुरा आया, तव गाला, सरखा र मंगन तीनों नींद में चो रहे थे । शव का समाप्त करके सब लोगों के चले जाने पर गोस्वामीजी उठकर कास : १६५