पृष्ठ:कंकाल.pdf/२९

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वालों से ही मेले में छोड़ दो गई थी! मैं अलग बैठीं रोती थी। उन्हीं में से कई मुझे हँसाने का उद्योग करती,कोई समझाती कोई झिड़कियाँ सुनाती और कोई मेरी मनोवृत्ति के कारण मुझे बनाती ! मैं चुप होकर सुना करती; परन्तु कोई पथ निकलने का न था। सब प्रबन्ध ठीक हो गया था,हम लोग पंजाब भेजी जाने वाली थीं। रेल पर बैठने का समय हुआ, मैं सिसक रही थी। स्टेशन के विश्रामगृह में एक भीड़-सी लग रही थी;परन्तु मुझे कोई न पूछता था।वही दुष्टा अम्मा वहाँ आई और बड़े दुलार से बोली-चल बेटी,मैं तुझे तेरी माँ के पास पहुँचा दूँँगी।मैंने उन सबोंं को ठीक कर लिया है—-मैं प्रसन्न हो गई।मैं क्या जानती थी कि मैं चूल्हे से निकलकर भाड़ में जाऊँगी!बात भी कुछ ऐसी थी। मुद उपद्रव मचाते देखकर उन लोगों ने अम्मा से कुछ रुपय लेकर मुझे उसके साथ कर दिया,मैं लखनऊ पहुँची।

हाँ,हाँ,ठीक है; मैंने भी सुना है कि पंजाब में स्त्रियों की कमी हैं; इसीलिए और प्रान्तो से स्त्रियाँ वहाँ भेजी जाती है,जो अच्छे दामों पर बिकती हैं।क्या तुम भी उन्हीं के चंगुल में...?

हाँ,दुभाग्य से।

स्टेशन पर गाड़ी रुक गई।रजनी क गहरी नीलिमा में नभ के तारे चमक रहे थे।तारा उन्हें खिड़की से देखने लगी।इतने में उस गाड़ी में एक पुरुष यात्री ने प्रवेश किया।तारा घुघंट निकालकर बैठ गई। और वह पुरुष अपना गट्ठर रखकर सोने का प्रबन्ध करने लगा। दो-चार क्षण में गाड़ी चली।तारा ने धूमकर देखा कि वह पुरुष मुँह फेर कर सो गया है; परन्तु अभी जगे रहने की संभावना थी। बाते आरम्भ न हुई। कुछ देर तक दोनों चुपचाप थे।फिर झपकी आने लगी। तारा ऊँघने लगी। मंगल भी झपकी लेने लगा। गम्भीर रज़नी के अंचल में उस चलती हुई गाड़ी पर पंखा चल रहा था। आमने-सामने बैठे हुए मंगल और तारा निद्रावश होकर झूम रहे थे।मंगल का सिर टकराया।उसकी आंखें खुलीं। तारा का घूँघट उलट गया था।देखा, तो गले का का अंश,कपोल, पाली और निद्रानिमीलित पद्मपलाशलोचन, जिस पर भौंहों की काली सेना का पहरा था! वह न जाने क्यों से दे लगा।सहसा गाड़ी रुकी और धक्का लगा।तारा मंगलदेव के अंक में आ गई। मंगल ने इसे सम्हाल लिया। वह आँँखे खोलती हुई मुस्कुराई और फिर सहारे से दिककर सोने लगी।यात्री, जो अभी दूसरे स्टेशन पर चढ़ा था, सोते सोते वेग से उठ पड़ा और सिर खिड़की से बाहर निकालकर वमन फेरने लगा! मंगल स्वयंसेवक था।उसने जाकर उसे पकड़ा और तारा से कहा--"लोटे में पानी होगा,दो मुझे।"

२२:प्रसाद वाङ्मय