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जीवन-दर्शन और चिंतन की परम्परा में वे मानवता के उज्ज्वल भविष्य और लोकमंगल-मूलक आदर्शों के क्रांतदर्शी—स्वप्नद्रष्टा और अग्रदूत थे। हिन्दी-साहित्य में प्रसाद जी की लेखनी के द्वारा आस्था और आत्मवाद के जिस नये युग का प्रवर्तन हुआ—छा या वा द—उसी की एक सुषमाभिव्यक्ति है। कविकुल-गुरु कालिदास और भवभूति दोनों को मिलाकर यदि व्यक्तित्व की कोई मूर्ति खड़ी की जा सके तो वह प्रसाद की उपमा बन सकती है। उनके ढाई उपन्यासों तथा खोज-पूर्ण निबन्धों का हिन्दी जगत में बड़ा ऊँचा स्थान है जहाँ उनके चिंतन की प्रचुर सामग्री मिलती है। उन्होंने हिन्दी जगत् को जो मणि-कांचनमय विचार दिये हैं उनका समुचित मूल्यांकन–आने वाली शताब्दियों का दायित्व होगा।

—अंतेवासी