पृष्ठ:कंकाल.pdf/८३

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की मत था कि कुछ दिन गोकुल में नलषर रह जायचंद्र की मानसीला अनंत भूमि में कर इदय आनन्दपूर्ण मनाया जाम । किमोरी भी ममत थ; विन्तु पिश की इसमें कुछ आपत्ति थी। इसी समय एषः ब्रह्मचारी ने भींवर आकर सबको प्रणाम विया । बिजय भक्ति हो गया, और निरंजन प्राप्त ।। |गया उन प्रह्मचारिमी के साय तुम्ही घूमते हों मगन्न । -बिजम ने आरनर्म भरी प्रसघ्नता से पूछा ।। ही विजय वाचू ! मैंने पद्म पर एक ऋदियुत पनि क्या है। यह सुनकर विः आप लोग यहां आयें हैं, मैं कुछ भिर लेने आपा है ।। | मंगल ! मैंने तो समझा या रि तुमने यही अध्यापन का का आरंभ पिया होगा; पर सुमनै सो यह अच्छा ढग निकाला। | वहीं तो करती है विर्य बाबू ! पाता ही तो है। कुछ वरने की प्रवृत्ति तो थी ---यह भी समाज-रोया और गुयार; परन्तु उन्हें क्रियात्मक रूप देने के लिए मेरे पास और कौन सान था। | ऐसे काम तो धार्थसमान करता है या, फिर उसके जो मैं अभिनय करने फी यया आवश्यकता था। उसी में सम्मिनिरः । गाते ।। | आर्यसमाज कुछ भण्डनाम है, गौर में प्राचीन धर्म में सीमा के भीतर ही सुपार को पपात हैं। अङ्ग चयों नई कहते कि तुम रामान को स्पष्ट झाद का अगुपण करने में असगर्भ से, पोटा में ठहर न सबै ये। उस विधि-मूलक व्यावहारिक धर्म पो तुम्हारे सम-शनर बनने वाले सौभद्र' [दम ने स्यौवार में किया, और तुम रायचं भान निषेधात्मक धर्म से प्रचारक बन गयै । कुछ बातों के न करने से ही मह प्राचीन धर्म सम्पादित हो जाता हैं-छुओ मत, धाऔ मत, घ्याही मत, इत्याशि- इत्यादि। कुछ भी दायित्व अनार नहीं मानें, चौर बात-बात में गारमें तुम्हारेप्रमाण- स्वरूप हैं। बुद्धिवाद का कोई उपाय नहीं ।-कहते-कहते पिंजर हँस पड़ा। | अंगण वी सौम्य आति तन गई। यित और मापुर' भाषा में बाहुने लगा--विजय बाबू, यशु और कुछ नहीं केवल छुपलता है । अरमान का अमाव–अनि की दुर्वलता, विद्रोह कराती है। धर्म मानवीय स्वभाव पर शासन करता है, न कर सके तो मनुष्य और पशु में भेद क्या हु षाय ? आपका मत यह है कि समाज की आवश्यकता देखकर धर्म की व्यवस्था बनाई नाम, नहीं वो हृभ उसे न मानेंगे । भर समाज हा प्रवृत्तिमूलक है। यह अधिक अधिक आध्यात्मिक बनाकर, तप और ह्याग के द्वारा शुद्ध बारके उच्च आदर्श ७४ : प्रसाद घाङ्मय