पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/१७

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हरी० : तावेदार की क्या मजाल कि महाराज के सामने झूठ बोले ! बीरसिंह मौजूद हैं, पूछ लिया जाय कि मैं कहाँ तक सच्चा हूं ।

बीर० :(हाथ जोड़कर) हरीसिंह ने जो कुछ कहा, वह बिल्कुल सच है--मगर महाराज, यह कब हो सकता है कि मैं अपने अन्नदाता और ईश्वर-तुल्य मालिक पर इतना बड़ा जुल्म करूँ !

महा० : शायद ऐसा ही हो, मगर यह तो कहो कि मैंने तुमको एक मुहिम पर जाने के लिए हुक्म दिया था और ताकीद कर दी थी कि आधी रात बीतने के पहिले ही यहाँ मे रवाना हो जाना, फिर क्या सबब है कि तीन पहर बीत जाने पर भी तुम अपने बाग ही में मौजूद रहे और तिस पर भी वैसी हालत में जैसा कि हरीसिंह ने बयान किया ? इसमें कोई भेद जरूर है !

बीर० : इसका सबब केवल इतना ही है कि बेचारी तारा के ऊपर एक आफत आ गई और वह किसी दुश्मन के हाथ में पड़ गई, मैं उसी को चारों तरफ ढूंढ़ रहा था, इसी में देर हो गई । जब तक मैं ढूँढ़ता रहा, पानी बरसता रहा, इसी से मेरे कपड़े भी गीले हो गए और मैं उस हालत में पाया गया जैसाकि हरीसिंह ने बयान किया है ।

महा० : सब बातें बिल्कुल फजूल हैं । अगर तारा का गायब हो जाना ठीक है तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं क्योंकि वह बदकार औरत है, बेशक, किसी के साथ कहीं चली गई होगी और उसका ऐसा करना तुम्हारे लिए एक बहाना हाथ लगा ।

'तारा बदकार औरत है' यह बात बीरसिंह को गोली के समान लगी क्यों- कि वे खूब जानते थे कि तारा पतिव्रता है और उन पर उसका प्रेम सच्चा है । मारे क्रोध के बीरसिंह की आँखें लाल हो गई और बदन काँपने लगा, मगर इस समय क्रोध करना सभ्यता के बाहर जान चुप हो रहे और अपने को संभाल कर बोले:

बीर० : महाराज, तारा के विषय में ऐसा कहना अनर्थ करना है !

हरी० : महाराज ने जो कुछ कहा, ठीक है ! (महाराज की तरफ देखकर) बीरसिंह पर शक करने का ताबेदार को और भी मौका मिला है ।

महा० : वह क्या?

हरी० ; कुंवर साहब जिन तीन आदमियों के साथ यहाँ से गये थे उनमें से दो