पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/४७

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आधी रात का समय है। चारों तरफ अंधेरी छाई हुई है। आसमान पर काली घटा रहने के कारण तारों की रोशनी भी जमीन तक नहीं पहुँचती। जरा-जरा बूंदा-बूंदी हो रही है मगर वह हवा के झपेटों के कारण मालूम नहीं होती। हरिपुर में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। ऐसे समय में दो आदमी स्याह पोशाक पहिरे, नकाब डाले (जो इस समय पीछे की तरफ उल्टी हुई है) तेजी से कदम बढ़ाये एक तरफ जा रहे हैं। ये दोनों सदर सड़क को छोड़ गली-गली जा रहे हैं और तेजी से चल कर ठिकाने पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं, मगर गजब की फैली हुई अँधेरी इन लोगों को एक रंग पर चलने नहीं देती, लाचार जगह-जगह रुकना पड़ता है, जब बिजली चमक कर दूर तक का रास्ता दिखा देती है तो फिर ये कदम बढ़ाते हैं।

ये दोनों गली-गली चल कर एक आलीशान मकान के पास पहुंचे जिसके फाटक पर दस-बारह आदमी नंगी तलवारें लिए पहरा दे रहे थे। दोनों ने नकाब ठीक कर ली और एक ने आगे बढ़ कर कहा, "महादेव!" इसके जवाब में उन सभों ने भी "महादेव!" कहा, इसके बाद एक सिपाही ने जो शायद सभी का सरदार था, आगे बढ़ कर उस आदमी से, जिसने 'महादेव' कहा था, पूछा, "आज आप अपने साथ और भी किसी को लेते आए हैं? क्या ये भी अन्दर जायेंगे?"

आगन्तुक: नहीं, अभी तो मैं अकेला ही अन्दर जाऊँगा और ये बाहर रहेंगे लेकिन अगर सर्दार साहब इनको बुलायेंगे तो ये भी चले जायेंगे।

सिपाही: बेशक, ऐसा ही होना चाहिए। अच्छा, आप जाइए।

इन दोनों में से एक तो बाहर रह गया और इधर-उधर टहलने लगा और एक आदमी ने फाटक के अन्दर पैर रक्खा। इस फाटक के बाद नकाबपोश को और तीन दरवाजे लाँघने पड़े, तब वह एक लम्बे-चौड़े सहन में पहुंचा जहाँ एक फर्श पर लगभग बीस के आदमी बैठे आपस में कुछ बातें कर रहे थे। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे थे और उसी के चारों तरफ वे लोग बैठे हुए थे। ये सब रोआबदार, गठीले और जवान आदमी थे तथा सभों ही के सामने एक-एक तलवार रक्खी हुई थी। उन लोगों की चढ़ी हुई मूंछों, और तनी हुई छाती, बड़ी-