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पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/५

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कई दफे कर चुकी हूँ और जिनके सबब से मैं डरती हूँ और चाहती हूँ कि आप अपने साथ मुझे भी ले चल कर इस अन्यायी राजा के हाथ से मेरा धर्म बचावें। इसमें कोई शक नहीं कि उस दुष्ट की नीयत खराब हो रही है और यह भी सबब है कि वह आपको एक ऐसे डाकू के मुकाबले में भेज रहा है जो कभी सामने होकर नहीं लड़ता बल्कि छिप कर लोगों की जान लिया करता है।

बीर॰ : (कुछ देर तक सोच कर) जहाँ तक मैं समझता हूँ, जब तक तुम्हारे पिता सुजनसिंह मौजूद हैं, तुम पर किसी तरह का जुल्म नहीं हो सकता।

तारा : आपका कहना ठीक है, और मुझे अपने पिता पर बहुत-कुछ भरोसा है, मगर जब उस 'कटोरा-भर खून' की तरफ ध्यान देती हूँ, जिसे मैंने अपने पिता के हाथ में देखा था तब उनकी तरफ से भी नाउम्मीद हो जाती हूँ और सिवाय इसके कोई दूसरी बात नहीं सूझती कि जहाँ आप रहें मैं आपके साथ रहूँ और जो कुछ आप पर बीते उसमें आधे की हिस्सेदार बनूँ।

बीर॰ : तुम्हारी बातें मेरे दिल में खुपी जाती हैं और मैं भी यही चाहता हूँ कि यदि महाराज की आज्ञा न भी हो तो भी तुम्हें अपने साथ लेता चलूँ, मगर उन लोगों के ताने से शर्माता और डरता हूँ जो सिर हिला कर कहेंगे कि 'लो साहब, बीरसिंह जोरू को साथ लेकर लड़ने गये हैं!'

तारा : ठीक है, इन्हीं बातों को सोच कर आप मुझ पर ध्यान नहीं देते और मुझे मेरे उस बाप के हवाले किये जाते हैं जिसके हाथ में उस दिन खून से भरा हुआ चाँदी का कटोरा...(काँप कर) हाय हाय! जब वह बात याद आती है, कलेजा काँप उठता है, बेचारी कैसी खूबसूरत...ओफ!!

बीर॰ : ओफ! बड़ा ही गजब है, वह खून तो कभी भूलने वाला नहीं––मगर अब हो भी तो क्या हो? तुम्हारे पिता लाचार थे, किसी तरह इनकार नहीं कर सकते थे! (कुछ सोच कर) हाँ खूब याद आया, अच्छा सुनो, एक तर्कीब सूझी है।

यह कह कर बीरसिंह तारा के पास बैठ गए और धीरे-धीरे बातें करने लगे।

उधर अंगूर की टट्टियों में छिपा हुआ वह आदमी, जिसके बारे में हम इस बयान के शुरू में लिख आए हैं, इन्हीं दोनों की तरफ एकटक देख रहा था। यका-यक पत्तों की खड़खड़ाहट और पैर की आहट ने उसे चौंका दिया। वह होशियार हो गया और पीछे फिर कर देखने लगा, एक आदमी को अपने पास आते देख धीरे-से बोला, "कौन है, सुजनसिंह?" इसके जवाब में "हाँ" की आवाज आई