नाहर॰: अगर इस समय हम लोग महाराज के पास पहुँचे तो बीरसिंह को जरूर पावेंगे।
खड़ग॰: मैं इस समय जरूर महाराज के पास जाऊँगा, क्या आप भी मेरे साथ वहाँ चल सकते हैं?
नाहर॰: चलने में हर्ज ही क्या है? मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ, और जब आप ऐसा मददगार मेरे साथ है तो मैं किसी को कुछ नहीं समझता! फिर मुझे वहाँ पहिचानता ही कौन है?
खड़ग॰: शाबाश! आपकी बहादुरी में कोई शक नहीं, मगर मैं इस समय वहाँ जाने की राय आपको नहीं दे सकता, क्या जाने कैसा मामला हो। आप इसी जगह कहीं ठहरें, मैं जाता हूँ, अगर बीरसिंह वहाँ होंगे तो जरूर अपने साथ ले आऊँगा, (कुछ सोच कर) मगर आपका यहाँ अकेले रहना भी मुनासिब नहीं।
नाहर॰: इसकी चिन्ता आप न करें। मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथी लोग इधर-उधर छिपे-लुके जरूर होंगे।
खड़ग॰: अच्छा तो मैं अपने इन तीनों आदमियों को साथ लिए जाता हूँ।
अपने तीनों आदमियों को साथ ले खड़गसिंह राजमहल की तरफ रवाना हुए। वहाँ ड्योढ़ी पर के सिपाहियों ने राजा के हुक्म मुताबिक इन्हें रोका मगर खड़गसिंह ने किसी की कुछ न सुनी, ज्यादा हुज्जत करने का हौसला भी सिपाहियों को न हुआ क्योंकि वे लोग जानते थे कि खड़गसिंह नेपाल के सेनापति हैं।
खड़गसिंह धड़धड़ाते हुए दीवानखाने में चले गए और ठीक उस समय वहाँ पहुँचे जब राजा करनसिंह अपने दोनों मुसाहबों शम्भूदत्त और सरूपसिंह के साथ बातें कर रहा था और चार आदमी एक लाश उठाये हुए वहाँ पहुँचे थे। वह लाश बीरसिंह की ही थी और इस समय राजा के सामने रक्खी हुई थी। बीरसिंह मरा नहीं था मगर बहुत ज्यादे जख्मी हो जाने के कारण बेहोश था।
यकायक खड़गसिंह को वहाँ पहुँचते देख राजा को ताज्जुब हुआ और वह कुछ हिचका, चेहरे पर खौफ की निशानी फैल गई। उसने बहुत जल्द अपने को सम्हाल लिया, उठ कर बड़ी खातिरदारी के साथ खड़गसिंह का इस्तकबाल किया और अपने पास बैठा कर बोला, "देखिए, बड़ी मेहनत और परेशानी से अपने प्यारे लड़के के खूनी बीरसिंह को, जिसे शैतान नाहरसिंह छुड़ा ले गया था, मैंने फिर पाया है।"