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पृष्ठ:कटोरा भर खून.djvu/७

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बीर॰ : तो अब मैं तुम्हारी लौंडियों को बुलाता हूँ और तुम्हें उनके हवाले करता हूँ।

तारा : नहीं, मैं आपको फाटक तक पहुँचा कर लौटूँगी, तब उन लोगों से मिलूँगी।

बीर॰ : जैसी तुम्हारी मर्जी।

हाथ में हाथ दिये दोनों वहाँ से रवाने हुए और बाग के पूरब तरफ, जिधर फाटक था, चले। जब फाटक पर पहुँचे तो बीरसिंह ने तारा से कहा, "बस अब तुम लौट जाओ।"

तारा : अब आप कितनी देर में आवेंगे?

बीर॰ : मैं नहीं कह सकता मगर पहर-भर के अन्दर आने की आशा कर सकता हूँ।

तारा : अच्छा जाइये मगर महाराज से न मिलियेगा।

बीर॰ : नहीं, कभी नहीं।

बीरसिंह आगे की तरफ रवाना हुआ और तारा भी वहाँ से लौटी मगर कुछ दूर उसी बंगले की तरफ आकर मुड़ी और दक्खिन तरफ घूमी जिधर एक संगीन सजी हुई बारहवरी थी और वहाँ आपुस में कुछ बातें करती हुई कई नौजवान औरतें भी थीं जो शायद तारा की लौंडियाँ होंगी।

धीरे-धीरे चलती हुई तारा अंगूर की टट्टी के पास पहुँची। उसी समय उस झाड़ी में से एक आदमी निकला जिसने लपक कर तारा को मजबूती से पकड़ लिया और उसे जमीन पर पटक छाती पर सवार हो बोला, "बस तारा! तुझे इस समय रोने या चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं और न इससे कुछ फायदा है। बिना तेरी जान लिए अब मैं किसी तरह नहीं रह सकता!!"

तारा : (डरी हुई आवाज में) क्या मैं अपने पिता सुजनसिंह को आवाज सुन रही हूँ!

सुजन॰ : हाँ, मैं ही कमबख्त तेरा बाप हूँ।

तारा : पिता! क्या तुम स्वयं मुझे मारने को तैयार हो?

सुजन॰ : नहीं, मैं स्वयम् तुझे मार कर कोई लाभ नहीं उठा सकता मगर क्या करूँ , लाचार हूँ!

तारा : हाय! क्या कोई दुनिया में ऐसा है जो अपने हाथ से अपनी प्यारी