पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/१००

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चौथा खण्ड
 

छोटीसी केवल एक कोठरीमात्र थी। उस घरमें से बातचीतकी आवाज आ रही थी। कपालकुण्डला निःशब्द पैर रखती हुई उस मड़ैयाके पास जा पहुँची। पास पहुँचते ही मालूम हो गया कि दो मनुष्य सावधानीके साथ बातें कर रहे हैं। पहले तो वह बात कुछ समझ न सकी; लेकिन बादमें पूरी चेष्टा करने पर निम्नलिखित प्रकार की बातें सुनाई पड़ीं—

एक कह रहा है—“मेरा अभीष्ट मृत्यु है; इसमें यदि ब्राह्मण सहमत न हों, तो मैं तुम्हारी सहायता न करूँगा; तुम भी मेरी सहायता न करना।”

दूसरा बोला—“मैं भी मंगलाकांक्षी नहीं हूँ, लेकिन जीवन भरके लिए, उसका निर्वासन हो; इसमें मैं राजी हूँ। लेकिन हत्याकी कोई चेष्टा मेरे द्वारा नहीं हो सकती, वरन् उसके प्रतिकूलाचरण ही करूँगी।

फिर पहलेने कहा—“बहुत अबोध हो तुम। तुम्हें कुछ ज्ञान सिखाता हूँ। मन लगाकर सुनो। बहुत ही गूढ़ बातें कहूँगा। एक बार चारों तरफ देख तो जाओ, मुझे श्वासकी आवाज लग रही है।”

वस्तुतः बातें मजेमें सुनने के लिए कपालकुण्डला मड़ैयाके दरवाजेके समीप ही आ गयी थी। अतीव आग्रह होनेके कारण उसकी साँसें जोर-जोरसे चल रही थीं।

साथीकी बातोंपर एक व्यक्ति घर के दरवाजे पर आया और आते ही उसने कपालकुण्डलाको देख लिया। कपालकुण्डलाने भी चमकीली चाँदनीमें उस आगन्तुकको देखा। वह स्थिर न कर सकी कि उस आगन्तुकको देखकर वह खुश हो, या डरे। उसने देखा कि आगन्तुक ब्रह्मवेशी है। सामान्य धोती पहने हुए है, शरीर एक उत्तरीय द्वारा अच्छी तरह ढँका हुआ है। ब्राह्मणकुमार बहुत ही कोमल और नवयुवक जान पड़ा; कारण, उसके चेहरेसे