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कपालकुण्डला
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कभी घोसलोंमें बैठे पक्षियोंके डैनोंकी फड़फड़ाहट, सूखे पत्तोंके गिरनेका शब्द, सर्पादि जीवोंके रेंगने और दूर कुत्तोंके भौंकनेका शब्द सुनाई पड़ जाता था। वायु भी निस्तब्ध थी, यह बात नहीं, वह चल रही थी, लेकिन इतनी मृदुगतिसे कि केवल ऊपरी वृक्षपत्रमात्र हिलते थे, लताएँ रस लेती थीं; आकाशमें निरभ्र मेघखण्ड धीरे-धीरे उड़ रहे थे। उस प्रकृतिकी नीरवताका सुख लेनेवाला अनुभव कर सकता था कि मन्द वायु-प्रवाह जारी है। पूर्व-सुखकी स्मृति जाग रही थी।

कपालकुण्डलाकी पूर्व स्मृति इस समय जागी। उसे याद आया कि सागर तटवर्ती बालियाड़ी ढूहेपर मन्द वायु किस प्रकार उसके केशोंके साथ खिलवाड़ करती थी। आकाशकी तरफ देखा, अनन्त नील मण्डल याद आया, समुद्रका रूप। कपालकुएडला इसी तरहकी पूर्व स्मृतिसे अनमनी चली जा रही है।

अनमनी होनेके कारण, कपालकुण्डलाको याद न रहा कि वह किस कामके लिए कहाँ जा रही है। जिस राहसे वह जा रही है, वह क्रमशः अगम्य होने लगा। जगल घना हो गया। मस्तकपर लता-वृक्षका वितान घना हो गया। चाँदनी न आनेके कारण अँधेरा हो गया। क्रमशः राह भी गुम हो गयी। राह न मिलनेके कारण कपालकुण्डलाका स्वप्न भंग हुआ। उसने उधर ताक कर देखा, दूर एक रोशनी जल रही थी। लुत्फुन्निसाने भी पहले इसी रोशनीको देखा था। पूर्व अभ्यासके कारण कपालकुण्डला इन सब बातोंसे भयरहित थी; लेकिन कौतूहल तो अवश्य हुआ। वह धीरे-धीरे उस ज्योतिके समीप पहुँची। उसने जाकर देखा कि जहाँ रोशनी जल रही है, वहाँ तो कोई भी नहीं; किन्तु उससे थोड़ी ही दूर पर घना जंगल होनेके कारण एक टूटी मड़ैया-सी अस्पष्ट दिखाई दी। उसकी दीवारें यद्यपि ईटों की थीं, किन्तु टूटी-फूटी-