नौकारोही यात्री इस तरहकी कल्पना कर ही रहे थे कि भैरव रवसे कल्लोल करता जल बढ़ने लगा। मल्लाह समझ गये कि ज्वार आ गया। मल्लाह यह भी जानते थे कि इस विशेष अवसरपर तटवर्ती नावें इस प्रकार जलके थपेड़ोंसे जमीनपर पटकनी खाकर चूर-चूर हो जाती हैं, इसलिये वह लोग बहुत शीघ्रताके साथ नाव खोलकर नदीकी बीचधारमें चले जानेका उपक्रम करने लगे। नावके खुलते-न-खुलते सामनेकी रेतीली भूमि जलमग्न हो गई। यात्रीगण व्यस्त होकर केवल स्वयं नौका पर सवार ही हो सके। तटपर रखा हुआ आहार बनानेका सारा सामान उठानेका उन्हें मौका ही न मिला।
जलका वेग नावको रसूलपुरकी नदीके बीच खींचे ले जा रहा था, लौटनेमें विलम्ब और बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी, इस ख्यालसे यात्री प्राणपणसे उससे बाहर निकल आनेकी चेष्टा करने लगे। यहाँतक कि उन मल्लाहोंके माथेपर मेहनतके कारण पसीनेकी बूँदें झलकने लगी। इस मेहनतके फलस्वरूप नाव नदी के बाहर तो अवश्य आ गयी, किन्तु ज्वारके प्रबल वेग के कारण एक क्षणके लिये भी रुक न सकी और तीरकी तरह उत्तरकी तरफ आगे बढ़ी, यानी बहुत मिहनत करके भी वे नावको रोक न सके, और नाव फिर वापस न आ सकी।
जब जलका वेग अपेक्षाकृत मन्द हुआ, तो उस समय नाव रसूलपुरके मुहानेसे काफी दूर आगे बढ़ गई थी। अब इस मीमांसाकी आवश्यकता हुई कि नवकुमारके लिये नाव फिर लौटाई जाय या नहीं? हां यहीं यह कह देना भी आवश्यक है कि नवकुमारके सहयात्री उनके पड़ोसीमात्र थे, कोई आत्मीय न था। उन लोगोंने विचारकर देखा कि अब लौटना फिर एक भाटेका काम है। इसके बाद ही फिर रात हो जायगी और रात