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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/११२

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चौथा खण्ड
 


कापालिकको रोमांच हो आया—मेरे सामने प्रत्यक्ष आकर खड़ी हो गयी हैं। भौंहें टेढ़ी कर ताड़ना करती और कहती हैं—‘अरे दुराचारी! तेरी ही चित्तकी अशुद्धिके कारण मेरी इस पूजामें विघ्न हुआ है। इतने दिनोंतक इन्द्रिय-लालसा के वशीभूत होकर उस कुमारीके रक्तसे तूने मेरी पूजा नहीं की। अतएव इसी कुमारी द्वारा तेरे सारे पूर्व कर्मोंका नाश हो रहा है। अब मैं तेरी पूजा ग्रहण न करूँगी।’ इसपर मैं रोकर भगवतीके चरणोंपर लोटने लगा, तो उन्होंने प्रसन्न होकर कहा—‘भद्र! इसका सिर्फ एक प्रायश्चित्त बताती हूँ। उसी कपालकुण्डलाका मेरे सामने बलिदान कर। जितने दिनोंतक तुझसे यह न हो सके, मेरी पूजा न करना।’

कितने दिनों तक और किस प्रकार मैं आरोग्य हुआ, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। क्रमशः आरोग्यलाभ करनेके बाद देवीकी आज्ञा पूरी करनेकी कोशिशमें लग गया। लेकिन मैंने देखा कि इन हाथोंमें एक बच्चे जैसा बल भी नहीं। बिना बाहुबलके यत्न सफल होनेका नहीं। अतएव इसमें सहायताकी आवश्यकता हुई। विदेशी और विधर्मी राजमें इस बातमें कौन सहायक हो सकता है। बड़ी कोशिशसे पापिनीका आभास मालूम हुआ। लेकिन बाहुबलके अभावसे कार्य पूरा नहीं होता है। केवल मानससिद्धिके लिए होमादि करता हूँ। कल रातको मैंने स्वयं देखा कि कपालकुण्डलाके साथ ब्राह्मणकुमारका मिलन हुआ। आज भी वह उससे मिलने जा रही है। देखना चाहो, तो मेरे साथ आओ।

वत्स! कपालकुण्डला वधके योग्य है। मैं भवानीके आज्ञानुसार उसका वध करूँगा। वह तुम्हारे प्रति भी विश्वासघातिनी है, अतएव तुम्हें भी उसका वध करना चाहिए। अविश्वासीको पकड़ कर मेरे यज्ञ-स्थान पर ले चलो। वहाँ अपने हाथसे उसका