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कपालकुण्डला
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हम तुम प्राणत्याग करना नहीं चाहते। बड़े प्रेम से जो कहते हैं कि यह संसार सुखमय है, सुखकी ही आशासे बैलकी तरह बराबर घूम रहे हैं—दुःखकी प्रत्याशासे नहीं। कहीं यदि आत्मकर्मदोषसे इस प्रत्याशामें सफलता प्राप्त न की, तो दुःख कहकर हम चिल्लाने लगते हैं किन्तु ऐसा होनेसे ही नियम नहीं बन जा सकता, ऐसा सिद्धान्त होता है। नियमका व्यतिक्रम माना है। हमें तुम्हें हर जगह सुख ही है। उसी सुखसे संसार में हम बँधे हुए हैं, छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन इस संसार-बन्धनमें प्रणय ही प्रधान रस्सी है। कपालकुण्डलाके लिए वह बन्धन या नहीं कोई भी बन्धन नहीं। फिर कपालकुण्डलाको कौन रोक सकता है? जिसके लिए बन्धन नहीं है, वही सबसे अधिक बलशाली है। गिरिशिखरसे नदीके उतरने पर कौन उसका गतिरोध कर सकता है? एक बार आँधी आनेपर उसे कौन रोक सकता है? कपालकुण्डलाका चित्त डाँवाडोल हो जाये, तो उसे कौन स्थिर कर सकता है? नये हाथीके मस्त हो जाने पर उसे कौन शान्त करे?

कपालकुंडलाने अपने हृदयसे पूछा—“अपने इस शरीरको जगदीश्वरीके लिए क्यों न समर्पण करूँ? पंचभूतको रखकर क्या होगा। प्रश्न वह करती थी, लेकिन कोई निश्चित उत्तर न दे सकती थी। संसारमें और कोई भी बन्धन न होनेपर पंचभूतका बन्धन तो है ही।

कपालकुंडला नीचा सिर किये चलने लगी। जब मनुष्यका हृदय किसी बड़े भावमें डूबा रहता है, तो उस समय चिन्ताकी एकाग्रतामें बाहरी जगतकी तरफ ध्यान नहीं रहता। उस समय अनैसर्गिक वस्तु भी प्रत्यक्षीभूत जान पड़ती है। इस समय कपालकुंडलाकी ऐसी ही अवस्था थी।

मानों ऊपरसे उसके कानोंमें वह शब्द पहुँचा—“वत्से, मैं राह दिखाती हूँ।” कपालकुंडला चकितकी तरह ऊपर देखने लगी। देखा, मानो आकाशमें नवनीरद-निन्दित मूर्ति है; गलेमें लटकनेवाली नरमुंडमालासे खून टपक रहा है; कमरमें नरकरराजि झूल