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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/१२०

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चौथा खण्ड
 

रही है; बाँये हाथमें नरकपाल; अंगमें रुधिरधारा, ललाटपर विषम उज्जवल ज्वाला विभासित है और लोचन प्रान्तोंमें बालशशि शोभित है; मानों दाहिने हाथसे भैरवी कपालकुंडलाको बुला रही है।

अब कपालकुंडला ऊर्ध्र्वमुखी होकर चली। वह अद्भुत देवी रूप आकाशमें उसे राह दिखा रहा था, कभी कपालमालिनीका अंग बादलोंमें छिपता, कभी सामने प्रकट होकर चलता। कपालकुंडला उन्हींको देखती हुई चलने लगी।

नवकुमार या कापालिकने यह सब कुछ न देखा। नवकुमारने सुरा-गरल-प्रज्ज्वलित-हृदयसे—कपालकुंडलाके धीरपदक्षेपसे असहिष्णु होकर साथीसे कहा, “कापालिक!”

कापालिकने पूछा—“क्या?”

“पानीयं देहि मे।”

कापालिकने नवकुमारको फिर शराब पिलायी।

नवकुमारने पूछा—“अब देर क्यों?”

कापालिकने भी कहा—“हाँ-हाँ, कैसी देर?”

नवकुमारने भीमनादसे पुकारा—“कपालकुंडला!”

कपालकुंडला सुनकर चकित हुई। अभी तक यहाँ कपालकुंडला कह कर किसीने पुकारा न था। वह पलटकर खड़ी हो गयी। नवकुमार और कापालिक उसके सामने आकर खड़े हो गये। कपालकुंडला पहले उन्हें पहचान न सकी, बोली—“तुम लौग कौन हो? यमदूत?”

लेकिन दूसरे ही क्षण पहचान कर बोली—“नहीं नहीं, पिता! क्या तुम मुझे बलि देनेके लिए आये हो?”

नवकुमारने मजबूतीके साथ कपालकुंडलाका हाथ पकड़ लिया। कापालिकने करुणार्द्र, मधुर स्वरमें कहा—“वत्से! हम लोगोंके साथ आओ।” यह कह कर कापालिक श्मशानकी राह दिखाता आगे चला।

कपालकुंडलाने आकाशकी तरफ फिर निगाह उठायी, जिधर