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कपालकुण्डला
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पर्वतके नीचेसे चलनेवाले व्यक्तिके ऊपर जैसे शिखर आ पड़े और वह पिस जाय, वैसे ही इस सिद्धान्तके हृदयमें पैदा होते ही नवकुमारका हृदय पिस गया।

इस समय नवकुमारके हृदयकी जो अवस्था थी, उसका वर्णन करना बहुत कठिन है। साथी लोग भी प्राणसे हाथ धो बैठे होंगे, इस सन्देहने भी उन्हें चिन्तान्वित किया, किन्तु शीघ्र ही अपनी विषम अवस्थामें उसकी समालोचनाने—उस शोकको भुला दिया। विशेषतः जब उनके मनमें हुआ कि जान पड़ता है कि उनके साथियोंने उन्हें छोड़ दिया है, तो हृदयके क्रोधसे और भी शीघ्र उनके हृदयकी चिन्ता दूर हो गयी।

नवकुमारने देखा कि आस-पास न तो कोई गाँव है, न आश्रय है, न लोग—और न बस्ती है, न भोजनकी कोई वस्तु, न पीने को पानी ही क्योंकि नदीका पानी सागरजलकी तरह खारा है; साथ ही भूख-प्याससे हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। भीषण समय है और उसके निवारणका भी कोई उपाय नहीं है। कपड़े भी नहीं हैं। क्या इसी बर्फीली हवामें खुले आकाशके नीचे बिना किसी छायाके रहना पड़ेगा? हो सकता है, रातमें शेर-भालू फाड़ खायें! आज बचे ही रह गये तो कल यही हो सकता है। प्राणनाश ही निश्चित है।

मनकी भयानक चञ्चलताके कारण नवकुमार बहुत देरतक एक जगहपर रुक नहीं सके। वह नदी तटसे ऊपर चढ़कर आये और इधर-उधर भटकने लगे। क्रमशः अन्धकार बढ़ने लगा। सिरपर आकाशमें नक्षत्र ठीक उसी तरह लगने लगे, जैसे नवकुमारके अपने गाँबमें उगा करते थे। उस अन्धकारमें चारों तरफ सन्नाटा, भयानक, गहरा सन्नाटा? आकाश, वन, नदी, समुद्र सब तरफ भयावह सन्नाटा—केवल बीच-बीचमें समुद्र-