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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/१७

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स्तूप-शिखर

‘....सविस्मये देखिया अदूरे भीषण-दर्शन मूर्ति।’
—मेघनाद वध।

जब नवकुमारकी नींद खुली, तो उस समय भयानक रात थी। उन्हें आश्वर्य हुआ कि अभीतक उन्हें शेर-बाघने क्यों नहीं फाड़ खाया! वह इधर-उधर देखने लगे कि कहीं बाघ तो नहीं आता है। अकस्मात् बहुत दूर सामने उन्हें एक रोशनी-सी जलती दिखाई दी। कहीं भ्रम तो नहीं होता, यह सोचके नवकुमार अतीव मनोनिवेशपूर्वक उस तरफ देखने लगे। रोशनीकी परिधि क्रमशः बढ़के और उज्ज्वलतर होने लगी। मालूम हुआ कि कहीं आग जल रही है। इसे देखते ही नवकुमारके हृदयमें आशाका सञ्चार हो आया। कारण, मनुष्यके बिना यह अग्नि-ज्वलन सम्भव नहीं। नवकुमार उठकर खड़े हो गये। जिधरसे अग्निकी रोशनी आ रही थी, वह उसी तरफ बढ़े। एकबार मनमें सोचा—यह रोशनी कहीं भौतिक तो नहीं है....हो भी सकता है। किन्तु केवल डरकर बैठ रहनेसे ही कौन जीवन बचा सकता है? यह विचार करते हुए नवकुमार निर्भीक चित्त हो उस तरफ बढ़े। वृक्ष लता, बालुका स्तूप, पग-पगपर उनकी गतिको रोकने लगे। नवकुमार वृक्ष, लताओंको दलते हुए और स्तूपोंका लंघन करते हुए उस तरफ बढ़ने लगे। आलोकके समीप पहुँचकर नवकुमारने देखा कि एक अति उच्च शिखरपर अग्नि जल रही है। उस