पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/१८

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प्रथम खण्ड
 

अग्निके प्रकाशमें शिखरपर बैठी हुई मनुष्यमूर्ति आकाशपर चित्रकी तरह दिखाई पड़ रही थी। नवकुमारने संकल्प किया कि इस मनुष्यमूर्तिके निकट पहुँचकर देखना चाहिये और इसी उद्देश्यसे वह उधर बढ़े। अन्तमें वह उस स्तूपपर चढ़ने लगे। मनमें एक अज्ञात आशंका अवश्य हुई; फिर भी, उसकी परवाह न कर नवकुमार आगे बढ़ने लगे। उस आसीन व्यक्तिके सामने पहुँचकर उन्होंने जो जो दृश्य देखा, उससे उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये। वह यह निश्चय न कर सके कि बैठना चाहिये या भागना चाहिये।

शिखरासीन मनुष्य आँखें मूँदे हुए ध्यानमग्न बैठा था। पहले वह नवकुमारको देख न सका। नवकुमारने देखा कि उसकी उम्र कोई पचीस वर्षके लगभग होगी। यह न जान पड़ा कि उसकी देहपर कोई वस्त्र है या नहीं; फिर कमरसे नीचेतक बाघम्बर पहने हुए थे। गलेमें रुद्राक्षकी माला लटक रही थी। सारा चेहरा दाढ़ी, मूँछ और कपालकी जटासे प्रायः ढँकासा था। सामने लकड़ीसे आग जल रही थी; उसी अग्निकी रोशनीको देखकर नवकुमार बहाँतक पहुँचे थे। लेकिन नवकुमारको एक तरहकी भयानक बदबू आ रही थी। उस स्थानको मजेमें देखते हुए नवकुमार इसका कारण ढूंढ़ने लगे। नवकुमारने उस व्यक्तिके आसनकी तरफ देखा कि एक छिन्नमुण्ड गलित शवपर वह मनुष्य बैठा हुआ ध्यानमग्न है। और भी भयभीत दृष्टिसे इन्होंने देखा कि पासमें ही नरमुण्ड भी रखा हुआ है। खूनकी कालिमा अभी भी उसपर लगी हुई है। इसके अतिरिक्त उस स्थानके चारों तरफ हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। यहाँतक कि उस रुद्राक्ष-मालामें भी बीच-बीचमें हड्डियाँ पिरोई हुई हैं। यह सब देखकर नवकुमार मंत्रमुग्धकी तरह खड़े देखते रह गये। वह आगे बढ़ें