देखा कि झोपड़ीमें चारों तरफ चटाई विछी हुई है और जगह-जगह व्याघ्रचर्म बिछे हैं। एक कलशमें पानी और कुछ फल-फूल भी रखे हुए हैं।
कापालिकने आग बालकर कहा—“फल-मूल जो कुछ है, खा सकते हो। पत्तोंका दोना बनाकर पात्रसे जल पी सकते हो। व्याघ्रचर्म बिछा हुआ है, सो सकते हो। निडर होकर रहो यहाँ शेर आदिका डर नहीं। फिर दूसरे समय मुझसे मुलाकात होगी। जबतक मुलाकात न हो, यह झोपड़ी त्यागकर कहीं न जाना।”
यह कहकर कापालिक चला गया। नवकुमारने थोड़े फल खाये और कुछ कसैले स्वादके उस जलको पिया। इतना आहार मिलते ही नवकुमारको परम सन्तोष हुआ। इसके बाद ही वह उस चर्मपर लेट रहे। सारे दिनकी मेहनत और जागरणके कारण वह शीघ्र ही निद्राकी गोदमें सो गये।
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:५:
समुद्रतट पर
“...दोषप्रभावे न च लक्ष्यत त
विमर्षि चाकारमनि चेतानां
मृणालिनी हैमविनोद रागम्॥”—रघुवंश।
सबेरे उठते ही नवकुमार सहज ही उस कुटीसे बाहर निकलकर घरकी राह खोजनेके लिए व्यस्त होने लगे, विशेषतः इस कापालिकका साथ किसी प्रकार भी उन्हें उचित न जान पड़ा। फिर
- ↑ अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:
——योगप्रभावो न च लक्ष्यते ते।
विभर्षि चाकारमनिर्वृतानां मृणालिनी हैममिवोपरागम्॥