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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/४२

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देव-मन्दिर में

“कण्व! अलं रुदितेन, स्थिरा भव, इतः पन्थानमालोक्य।”
—शकुन्तला।

सवेरे बड़े तड़के ही अधिकारी पुजारिन नवकुमारके पास आयीं। उन्होंने देखा कि अभीतक नवमाकुर सोये न थे। पूछा—“अब बताइये, क्या करना चाहिये?”

नवकुमारने कहा—“आजसे कपालकुण्डला मेरी धर्मपत्नी हुई। इसके लिए यदि मुझे संसारका त्याग भी करना पड़ेगा तो करूँगा। कन्यादान कौन करेगा?”

पुजारिनका चेहरा हर्षसे खिल उठा। मन-ही-मन सोचा—“इतने दिनों बाद जगदम्बाकी कृपासे, जान पड़ता है, मेरी कपालिनीका ठिकाना लगा।” प्रकट कहा—“मैं कन्यादान करूँगी।” यह कहकर वह अपने कमरे में गयीं और एक पुरानी थैलीमें से एक पत्रा निकाल लायीं। पत्रा पुराना ताड़पत्रका था। उसे मजेमें देखकर उन्होंने कहा—“यद्यपि आज लग्न नहीं है, लेकिन शादीमें कोई हर्ज नहीं। गोधूलि-कालमें कन्यादान करूँगी। तुम्हें आज केवल व्रत रहना होगा, शेष लौकिक कार्य घर जाकर पूरा कर लेना। एक दिनके लिए तुम लोगों को छिपाकर रख सकूँगी। ऐसा स्थान मेरे पास है। आज यदि कापालिक आयेगा तो तुम्हें खोज न पायेगा। इसके बाद शादी हो जानेपर कल सबेरे सपत्नीक घर चले जाना।”

नवकुमार इसपर राजी हो गये। इस अवस्थामें जहाँतक