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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/४७

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कपालकुण्डला
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व्यग्र होकर उन्होंने पूछा—“क्या कपालकुण्डला?”

स्त्रीने कहा—“कपालकुण्डला कौन है, मैं नहीं जानती—मैं पथिक हूँ, अवश्य ही डाकुओं के द्वारा निकुण्डला हुई हूँ।”

व्यंग सुनकर नवकुमार कुछ प्रसन्न हुए। पूछा—“क्या हुआ है?”

उत्तर देनेवालीने कहा—“डाकुओंने मेरी पालकी तोड़ दी मेरे एक रक्षकको मार डाला। बाकी सब भाग गये और डाकुओंने मेरे अंगके सारे गहने लेकर मुझे पालकीसे बाँध दिया।”

नवकुमारने अंधकारमें ही जाकर देखा कि वस्तुतः एक स्त्री पालकीमें कसकर कपड़ेसे बँधी है। नवकुमारने शीघ्रतापूर्वक उसके बन्धन खोलकर पूछा—“क्या तुम उठ सकोगी?” स्त्रीने जवाब दिया—“मेरे पैरमें लाठीकी चोट लगी है। पैर में दर्द है, फिर भी, जरा सहायता मिलते ही उठ खड़ी हूँगी।”

नवकुमारने हाथ बढ़ा दिया। रमणी उसकी सहायतासे उठी। नवकुमारने पूछा—“क्या चल सकोगी?”

इस प्रश्नका कोई जवाब न देकर रमणीने पूछा—“आपके पीछे क्या कोई पथिक आ रहा था?”

नवकुमारने कहा—“नहीं।”

स्त्रीने फिर पूछा—“यहाँसे चट्टी कितनी दूर है?”

नवकुमारने जवाब दिया—“कितनी दूर है, यह तो मैं नहीं कह सकता—लेकिन जान पड़ता है कि निकट ही है।”

स्त्रीने कहा—“अँधेरी रातमें अकेली जंगलमें बैठकर क्या करूँगी; आपके साथ अगली मञ्जिल तक चलना ही उचित है। शायद कोई सहारा पानेपर चल सकूंगी।”

नवकुमारने कहा—“विपद्‌कालमें सङ्कोच करना मूर्खता है। मेरे कन्धेका सहारा लेकर चलो।”