पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
५९
द्वितीय खण्ड
 

श्यामासुन्दरी अपनी भाभीको ‘बहू’, कभी आदर पूर्वक ‘बहन’, कभी ‘मृणा’ नामसे सम्बोधित कर रही थी। कपालकुंडला नाम विकट होने के कारण घर के लोगोंने उसका नाम ‘मृण्मयी’ रखा है; इसीलिये संक्षिप्त नामसे ‘मृणा’ कहकर बुलाती है। हमलोग भी कभी-कभी कपालकुंडलाको मृण्मयी नामसे पुकारेंगे।

श्यामासुन्दरी अपने बचपन की याद की हुई एक कविता पढ़ रही थी—

‘—बोले—पद्मरानी, बदनखानी, रेते राखे ढेके।
फूटाय कलि छटाय अलि प्राण पतिके देखे॥
आबार-बनेरलता, छड़िये पाता, गाछेर दिके धाय।
नदीर जल, नामले टल, सागरते जाय॥
छि-छि-सरम टूटे, कुमुद फूटे चादर आलो देले।
बियेर कने राखते नारी फूलशय्या गेले॥
मरि एक ज्वाला विधिर खेला, हरिबे विषाद।
बरदरशे भाई रसे, भाङ्गे लाजेर बाँज॥

[१]

‘क्यों भाभी! तुम तपस्विनी ही रहोगी?’

मृण्मयीने उत्तर दिया,—“क्यों, क्या तपस्या कर रही हूँ?”

श्यामासुन्दरीने अपने दोनों हाथों से केशतरंगमालाको उठाकर कहा,—“तुम अपने इन खुले बालोंकी चोटी नहीं करोगी?”

मृण्मयीने केवल मुस्कराकर श्यामासुन्दरीके हाथसे बालोंको हटा लिया।

श्यामासुन्दरी ने फिर कहा,—“अच्छा, मेरी साध तो पूरी कर दो। एक बार हम गृहस्थोंके घरकी औरतोंकी तरह शृङ्गार कर लो। आखिर कितने दिनोंतक योगिनी रहोगी?”

मृ०—जब इन ब्राह्मण सन्तानके साथ मुलाकात नहीं हुई थी, तो उस समय भी तो मैं योगिनी ही थी।

  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    बोले—पद्मरानी, बदनखानी, रेते राखे ढेके।
    फूटाय कलि, जूटाय अलि, प्राणपतिके देखे॥
    आबार—बनेर लता, छड़िये पाता, गाछेर दिके धाय।
    नदीर जल, नामले ढल, सागरेते जाय॥
    छि-छि—सरम टूटे, कुमुद फूटे, चाँदेर आलो पेले।
    बियेर कने राखते नारि फूलशय्या गेले॥
    मरि—एकि ज्वाला, विधिर खेला, हरिषे विषाद।
    परपरशे, सबाई रसे, भाङ्गे लाजेर बाँध॥