पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
कपालकुण्डला
५८
 

था। इस समय सप्तग्राम की गिरी हुई दशाके कारण अधिक आदमियोंका आगमन न होता था। राजपथ लता-गुल्मादिसे आच्छादित हो रहे थे। नवकुमारके घरके पीछे एक विस्तृत घना जङ्गल है। घरके सामने कोई आध कोसकी दूरीपर एक नहर बहती है, जो वनको घेरती हुई पिछवाड़ेके जङ्गलमें से बही है। मकान साधारण ईंटोंका बना हुआ पक्का है। है तो दो-मञ्जिला, किन्तु आज-कलके एक खण्डके मकानोंकी जैसी ऊँचाई उसकी है।

इसी घरकी ऊपरी छतपर दो युवतियाँ खड़ी हो चारों तरफ देख रही हैं। संध्याका समय है। चारों तरफ जो कुछ दिखाई पड़ता है, अवश्य ही वह नयन मोहक है। पासमें ही एक तरफ घना जङ्गल है, जिसमें विविध प्रकारके पक्षी झुण्ड के झुण्ड बैठे कलरव कर रहे हैं। एक तरफ वह नहर, मानों रूपहली रेखाकी तरह बल खाती चली गयी है। दूसरी तरफ नगरकी विस्तृत अट्टालिकाएँ अपना सर ऊँचा किये मानों कह रही हैं कि वसन्त-प्रिय-मधुर सौन्दर्य प्रियजनों का यहाँ निवास है। एक तरफ बहुत दूर नावोंसे सजी हुई भागीरथीकी धारा है, जिसके विशाल वक्षःस्थलपर सांध्यतिमिरका आवरण धीरे-धीरे गाढ़ा हो रहा है।

वे जो दो नवीना मकानके ऊपर खड़ी हैं, उनमें एक चन्द्र-रश्मि-वर्णवाली, अविन्यस्त केशराशिके अन्दर आधी छिपी हुई है; दूसरी कृष्णांगी है। वह सुमुखी षोडशी है। उसका जैसा नाटा कद है, वैसे ही बाल चेहरा भी छोटा है, उसके ऊपरी हिस्सेके चारों तरफसे घुँघराले बाल लटक रहे हैं। नेत्र अच्छे बड़े, कोमल, सफेद मानों बन्द कली के सदृश हैं, छोटी-छोटी उँगलियाँ साथिनीके केशोंको सुलझाती हुई घूम रही हैं। पाठक महाशय समझ गये होंगे कि वह चन्द्ररश्मि-वर्णवाली और कोई नहीं, कपालकुण्डला है; दूसरी कृष्णांगी उसकी ननद श्यामासुन्दरी है।