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तृतीय खण्ड
 

मेह०—“कब्रकी मिट्टीमें चेहरेका आदर्श रहेगा!”

मोती—“बहन! आज हृदयकी हास्यप्रियतामें इतनी कमी क्यों है?”

मेह०—“नहीं, प्रसन्नतामें कमी तो नहीं है। फिर भी, कल सबेरे ही जो तुम मुझे त्यागकर चली जाओगी, इसको कैसे भूल सकती हूँ! और दो दिन रहकर तुम मुझे कृतार्थ क्यों नहीं किया चाहती?”

मोती—“सुखकी किसे इच्छा नहीं होती? यदि वश चलता तो मैं क्यों जाती? लेकिन क्या करूँ, पराधीन हूँ।”

मेह०—“मुझपर अब तुम्हारा वह प्रेम नहीं। यदि रहता, तो तुम अवश्य रह जातीं। आई हो, तो रह क्यों नहीं सकती?”

मोती—“मैं तो तुमसे सब कह चुकी हूँ। मेरा छोटा भाई मुगल सैन्यमें मंसबदार है। वह उड़ीसाके पठानोंके युद्धमें आहत होकर संकटमें पड़ गया था। मैं उसकी ही विपद्‌की खबर पाकर बेगमसे छुट्टी लेकर आयी थी। उड़ीसामें बहुत दिन लग गये, अब अधिक देर करना उचित नहीं। तुमसे बहुत दिनोंसे मुलाकात हुई न थी, इसलिए यहाँ दो दिन ठहर गयी।”

मेह०—“बेगमके पास किस दिन पहुँचना स्वीकार कर आई हो?”

मोती बीबी समझ गयी कि मेहर व्यंग कर रही है। मार्मिक व्यङ्ग करनेमें मेहर जैसी निपुण है, वैसी मोती नहीं। लेकिन वह अप्रतिभ होनेवाली भी नहीं है उसने उत्तर दिया—‘भला’ तीन महीने की यात्रामें दिन भी निश्चित कर बताया जा सकता है? लेकिन बहुत दिनों तक विलम्ब कर चुकी; और अधिक विलम्ब असन्तोषका कारण बन सकता है।’

मेहरने अपनी लोकमोहिनी हँसीसे हँसकर कहा—“किसके