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पृष्ठ:कपालकुण्डला.djvu/८

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प्रथम खण्ड
 


पूर्वक बाहर निकल देखने लगे कि क्या हालत है, हम कहाँ हैं? देखा, कि सूर्यका प्रकाश हो गया है। करीब एक प्रहर दिन बीत गया था। जहाँ इस समय नौका है, वह वास्तविक समुद्र नहीं है, नदीका मुहाना मात्र है, किन्तु नदीका वहाँ जैसा विस्तार है, वैसा विस्तार और कहीं भी नहीं है। नदीका एक किनारा तो नावसे बहुत ही समीप है—यहाँ तक कि कोई पचास हाथ दूर होगा, लेकिन नदीका दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता; और दूसरी तरफ जिधर भी देखा जाता है, अनन्त जलराशि है। चञ्चल रवि रश्मिमाला प्रदीप्त होकर आकाशप्रान्तमें ही विलीन हो गई है। समीपकी जल सचराचर मटमैला नदी-जलकी तरह है, किन्तु दूरका जल नील—नीलप्रभ है। आरोहियोंने निश्चित सिद्धान्त कर लिया है कि वे लोग महासमुद्रमें आ पड़े हैं। फिर भी, सौभाग्य यही है कि किनारा निकट है और डरकी कोई बात नहीं है। सूर्यकी तरफ देखकर दिशाका निरूपण किया। सामने जो किनारा वे देख रहे थे, वह सहज ही समुद्रका पश्चिमी तट निरूपित हुआ। किनारे तथा नावसे थोड़ी ही दूरपर एक नदीका मुँह मंदगामी जलके प्रवाहकी तरह आकर पड़ रहा था। संगमस्थलके दाहिने बाजू बृहद् वालुका-राशिपर बक आदि पक्षी अगणित संख्यामें क्रीड़ा कर रहे थे। इस नदीने आजकल “रसूलपुर की नदी” नाम धारण कर लिया है।