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तृतीय खण्ड
 

लु०—“मैंने यह बात तो नहीं कही। मैंने कहा था कि इस विषयमें अब मुझे कोई चिन्ता नहीं।”

पे०—“चिन्ता क्यों नहीं है? यदि आप आगरेकी एकमात्र अधीश्वरी न हुई तो सब व्यर्थ है।”

लु०—“आगरासे अब कोई सम्बन्ध न रखूँगी।”

पे०—“हैं! मेरी समझमें कुछ आता ही नहीं। तो वह शुभ संवाद क्या है, समझाकर बताइये न?”

लु०—“शुभ संवाद यही है कि इस जीवनमें आगरेको छोड़कर अब मैं चली।”

पे०—“कहाँ जायँगी?”

लु०—“बंगालमें जाकर रहूँगी। हो सका तो किसी भले आदमीके घर की गृहिणी बनकर रहूँगी।”

पे०—“यह व्यङ्ग नया जरूर है, लेकिन सुनकर कलेजा काँप उठता है।”

लु०—“व्यंग नहीं करती, मैं सचमुच आगरा छोड़कर जा रही हूँ। बादशाहसे बिदा ले आयी हूँ।”

पे०—“यह कुप्रवृत्ति आपकी क्यों हुई?”

लु०—“यह कुप्रवृत्ति नहीं है। बहुत दिनों तक आगरेमें रही, क्या नतीजा हुआ? बचपनसे ही सुखकी बड़ी प्यास थी। उसी प्यासको बुझानेके लिए बंगालसे यहाँ तक आई। इस रत्नको खरीदनेके लिए कौन-सा मूल्य मैंने नहीं चुकाया? कौन-सा दुष्कर्म मैंने नहीं किया? और जिस उद्देश्यके लिए यह सब किया, उसमें मैं क्या नहीं पा सकी? ऐश्वर्य, सम्पदा, धन, गौरव, प्रतिष्ठा सबका तो छककर मजा लिया, लेकिन इतना पाकर भी क्या हुआ? आज यहाँ बैठकर हर दिनको गिनकर कह सकती हूँ कि एक दिनके लिए, एक क्षणके लिए भी सुखी न हो सकी। कभी परितृप्त न